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________________ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध श्रमणों ब्राह्मणों द्ररिद्रों भिक्षाचरों, भिक्षाभोजी, शरीर पर भस्म रमाकर भिक्षा मांगने वालों आदि को भी भोजन कराया। उनके लिए भोजन सुरक्षित रखाया, याचकों में दान बांटा। इस प्रकार शाक्यादि भिक्षाजीवियों को भोजनादि का वितरण करवा कर अपने मित्र ज्ञाति स्वजनं संबंधी वर्ग को भोजन कराया। उन्हें भोजन कराने के पश्चात् उनके समक्ष कुमार के नामकरण के संबंध में इस प्रकार कहा जिस दिन से यह बालक त्रिशला महारानी की २९८ कुक्षि में गर्भ रूप से आया उसी दिन से हमारे कुल में चांदी, सोना, धन, धान्य, माणिक्य, मोती, शंख शिला प्रवाल आदि पदार्थों की प्रचुर मात्रा में अभिवृद्धि हो रही है। अतः इस कुमार का नाम 'वर्द्धमान' हो अर्थात् इसका गुणनिष्पन्न नाम 'वर्द्धमान' रखा जाता है। 1 विवेचन प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का गुणनिष्पन्न नाम देने का उल्लेख किया गया है और 'वर्द्धमान' नाम रखने का कारण बताया है । " णिव्वत्तदसाहंसि " के बदले किसी किसी प्रति में ऐसा पाठ मिलता है यथा "एक्कारसमे दिवसे वीडक्कंते निव्वत्तिए असुईजायककम्मकरणे संपत्ते बारसाहदिवसे.........।" अर्थ - ग्यारहवाँ दिन व्यतीत होने पर अशुचित जातककर्म से निवृत्त होने पर बारहवाँ दिन आने पर ....... । राजा सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला दोनों ने अपने-अपने सभी इष्ट सज्जन, परिजन, मित्रों तथा ससुराल पक्ष के सभी सगे सम्बन्धियों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। साथ ही समस्त प्रकार के भिक्षाजीवी भिक्षुकों को भी भोजन दिया। इन सब बातों से महाराजा और महारानी की उदारता के साथ-साथ अनुकम्पाशीलता का भी परिचय मिलता है। राजा रानी दोनों तेईसवें तीर्थंकर पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ के श्रावक-श्राविका थे । फिर भी उन्होंने अन्य मत के श्रमण भिक्षुओं आदि को बुलाकर दान दिया। इससे स्पष्ट होता है कि आगम में श्रावक श्राविका के लिए अनुकम्पा दान आदि का निषेध नहीं किया गया है। सिर्फ गुरु बुद्धि से दान देने का निषेध किया गया है। गृहस्थ का द्वार बिना किसी भेद भाव के सबके लिए खुला रहता है। प्रत्येक प्राणी के प्रति वह दया और स्नेह भाव रखता है। उपरोक्त प्रकार के उल्लेखों से प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में प्रायः सभी सम्पन्न वर्ग के लोग अपनी संतान का नामकरण समारोह पूर्वक करते थे और उसके किसी न किसी गुण को सूचित करने वाला नाम रखते थे । Jain Education International - - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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