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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध .000000000000000000000rrrrrrrrrrrrr.00000000000000000000+
इस सूत्र में "पगणिय पगणिय" शब्द दिया है जिसका अर्थ है गिन गिन कर। प्राचीन धारणा के अनुसार इसका अर्थ यह है कि जहाँ 'पगणिय पगणिय' शब्द आता है वहाँ जैन साधु भी सम्मिलित है। ऐसा समझना चाहिए इसलिए इस आलापक में अन्य भिक्षु के साथ जैन साधु भी सम्मिलित लेना चाहिए ऐसा आहार आदि आधाकर्मी होता है। इसलिए जैन साधु साध्वी के लिए ग्रहण करने योग्य नहीं है। टीकाकार ने भी इस आलापक का ऐसा ही अर्थ किया है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा बहवे समण-माहण-अतिहिकिवण-वणीमए समुद्दिस्स जाव चेएइ तं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अपुरिसंतरकडं वा अबहिया णीहडं अणत्तट्ठियं अपरिभुत्तं अणासेवियं अफासुयं अणेसणिजं जाव णो पडिग्गाहिज्जा॥ .
अह पुण एवं जाणिजा पुरिसंतरकडं बहिया णीहडं अत्तट्ठियं परिभुत्तं आसेवियं फासुयं एसणिजं जाव पडिग्गाहिज्जा॥८॥
भावार्थ - गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु अथवा साध्वी ऐसा जाने कि-यह आहार जो कि बहुत से शाक्यादि, भिक्षु, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्री, वनीपक आदि भिखारियों को उद्देश्य करके बनाया गया हो, अपुरुषान्तर कृत हो, घर से बाहर न निकाला हो, दूसरे व्यक्ति ने अपने अधिकृत न किया हो, भोगा न हो, सेवन भी न किया हो तो उसे अप्रासुक एवं अनेषणीय समझ कर ग्रहण न करे।
__ और यदि साधु इस प्रकार जाने कि-यह आहार दूसरों से कृत है घर से बाहर निकाला हुआ है अपना अधिकृत (नेश्राय) है खाया है सेवन किया हुआ है तो उस आहार को प्रासुक और एषणीय समझ कर ग्रहण करे।
विवेचन - अप्रासुक और अनेषणीय आहार साधु के लिए अग्राह्य है परन्तु यदि आहार पुरुषान्तर हो गया है, लोग घर से बाहर ले जा चुके हैं, व्यक्तियों द्वारा खा लिया गया है और वह प्रासुक एवं एषणीय है तो साधु ग्रहण कर सकता है।
यह आहार अन्य भिखारियों के लिये बनाया गया है इसमें जैन साधु साध्वी सम्मिलित
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