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________________ १४ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध . ................00000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु अथवा साध्वी यह जाने कि-जो आहार किसी एक साधर्मिक साधु को उद्देश्य करके, प्राण भूत जीव सत्त्वों का आरंभ करके तैयार किया गया हो, साधु के निमित्त से मोल लिया हो, उधार लिया हो, निर्बल से छीन कर लिया हो, भागीदारी वाले स्वामी की स्वीकृति के बिना लिया गया हो, सामने ला कर के दिया जा रहा हो इस प्रकार किसी भी दोष से युक्त आहारं गृहस्थ लाकर देवे तो ऐसा आहार जो चाहे पुरुषान्तरकृत हो अथवा अपुरुषान्तरकृत हो, घर से बाहर निकाला हो या नहीं निकाला गया हो, जिस पुरुष को वह आहार आदि दिया गया है उसने स्वीकार किया हो अथवा नहीं किया हो, स्वयं के द्वारा काम में लिया हुआ हो या न लिया हो तथा स्वयं सेवन कर लिया हो अथवा सेवन नहीं किया हो इस प्रकार के आहार आदि को अप्रासुक . अनेषणीय जानकर के मिलने पर भी साधु या साध्वी ग्रहण न करे। ____ इसी प्रकार बहुत से साधर्मिक साधुओं के लिए बनाया गया आहार तथा एक साध्वी के निमित्त बनाया गया आहार अथवा बहुत सी साध्वियों के निमित्त से बनाया गया आहार सभी साधुओं और साध्वियों के लिए अगाह्य है। इस प्रकार चार आलापक कहना चाहिये। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अनेषणीय आहारादि की अग्राह्यता का वर्णन किया गया है। साधु साध्वी को सदैव निर्दोष एवं एषणीय आहार ही ग्रहण करना चाहिये। मूल पाठ में 'पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा' शब्द आया है जिसका अर्थ है - आहार आदि के स्वामी, दाता ने उस आधाकर्मी आहार आदि को दूसरे व्यक्ति को दे दिया हो और उस व्यक्ति ने उस आहार आदि को स्वीकार कर लिया हो इस प्रकार का आहार आदि पुरुषान्तरकृत कहलाता है। किन्तु दूसरे को नहीं दिया हो उस आहार आदि पर उसी का स्वामीपना हो या मालिकी हो उसको अपुरुषान्तरकत कहते हैं। मूल पाठ में 'अस्संपडियाए' दिया है जिसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है। 'अस्संपडियाए - न विद्यते स्वं-द्रव्यं अस्य सोऽयम् अस्वो-निर्ग्रन्थ इत्यर्थः, तत् प्रतिज्ञया।' अर्थ - जिसके पास 'स्व' अर्थात् धन नहीं है उसको 'अस्व' कहते है। जिसका आशय है निर्ग्रन्थ। कोष में स्व शब्द के चार अर्थ हैं यथा - आत्मा, आत्मीय, ज्ञाति (जाति), धन। इस प्रकरण में स्व शब्द का अर्थ धन लिया गया है। प्रश्न - प्राण, भूत, जीव, सत्त्व किसे कहते हैं ? उत्तर - सामान्य रूप से इन चारों शब्दों का अर्थ जीव है किन्तु विशेष की विवशा से इनका अर्थ इस प्रकार किया गया है यथा - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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