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तृतीय सप्तिका उच्चार प्रावण नामक दशवां अध्ययना
नववें अध्ययन में स्वाध्याय का वर्णन करने के पश्चात् सूत्रकार उच्चार प्रस्रवण नामक इस दसवें अध्ययन में मल मूत्र के त्याग की विधि का वर्णन करते हुए फरमाते हैं - ___ से भिक्खु वा भिक्खुणी वा उच्चार पासवण किरियाए उब्बाहिज्जमाणे सयस्स पायपुंछणस्स असईए तओ पच्छा साहम्मियं जाइज्जा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण थंडिल्लं जाणिज्जा-सअंडं सपाणं जाव मक्कडा संताणयं तहप्पगारंसि थंडिल्लंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा। से भिक्खू वा भिक्खणी वा जं पुण थंडिल्लं जाणिज्जा अप्पपाणं जाव संताणयं तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा।
कठिन शब्दार्थ - उब्बाहिज्जमाणे - बाधा होने पर, सयस्स - अपने, पायपुंछणस्सपादपुञ्छनक के, थंडिल्लंसि - स्थंडिल भूमि में। ___ भावार्थ - साधु या साध्वी उच्चार (मल) प्रस्रवण (मूत्र) की बाधा होने पर परठने वाले पात्र में उससे निवृत्त होकर मल मूत्रादि को स्थंडिल भूमि में परठ दे। यदि अपना पात्र नहीं हो तो अन्य साधर्मी साधु से पात्र की याचना करके उसमें अपनी बाधा का निवारण करके परठ दे। वह साधु या साध्वी स्थंडिल भूमि के संबंध में यह जाने कि वह भूमि अंडों यावत् मकडी के जालों से युक्त है तो वहां मलमूत्र का व्युत्सर्ग-त्याग नहीं करे। जो स्थंडिल भूमि द्वीन्द्रियादि जीवों यावत् मकडी के जालों से रहित है तो उस भूमि पर मलमूत्र का विसर्जन करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में उच्चार-प्रस्रवण का त्याग करने की विधि बताई गई है। साधु साध्वी को कभी भी मल मूत्र का निरोध नहीं करना चाहिये क्योंकि इनके निरोध से शरीर में अनेक प्रकार की व्याधियाँ और भयंकर रोग उत्पन्न हो सकते हैं जिनके कारण आध्यात्मिक साधना में रुकावट पड़ सकती है अतः साधु साध्वी के लिये यह आदेश है कि मल मूत्र की बाधा होने पर उसका निवारण कर प्रासुक और निर्दोष भूमि में यतना पूर्वक उसे परठ दे।
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