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अध्ययन ८
२. दूसरी प्रतिमा में साधु अभिग्रह करता है कि मैं अचित्त स्थान में आश्रय लूंगा, अचित्त भींत आदि का सहारा लूंगा, हाथ पैर आदि का संकुचन प्रसारण करूंगा किन्तु मर्यादित भूमि में पैरों से थोडा सा भी विचरण नहीं करूंगा
३. तीसरी प्रतिमा में साधु अभिग्रह करता है कि मैं अचित्त स्थान में रहूंगा, अचित्त भींत आदि का सहारा लूंगा परंतु हाथ पैर आदि का संकुचन प्रसारण नहीं करूंगा और मर्यादित भूमि में पैरों से थोडा सा भी भ्रमण नहीं करूंगा ।
४. चौथी प्रतिमा में साधु प्रतिज्ञा करता है कि मैं अचित्त स्थान में ठहरूंगा परंतु भींत आदि का सहारा नहीं लूंगा, हाथ पैर आदि का संचालन और पैरों से भ्रमण नहीं करूंगा । कुछ काल के लिये काया के ममत्व भाव को छोड़ कर केश, दाढी, मूंछ, रोम, नख के ममत्व भाव का त्याग कर सम्यक् प्रकार से काया का निरोध करके अचित्त स्थान में ठहरूंगा अर्थात् यदि कोई केशादि का उत्पाटन करेगा तो भी ध्यान से विचलित नहीं होऊंगा । यह चौथी प्रतिमा का स्वरूप है।
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इन पूर्वोक्त चार प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को ग्रहण कर विचरे किन्तु अन्य किसी मुनि की (जिसने प्रतिमा ग्रहण नहीं की) निन्दा न करे उसके विषय में कुछ न कहे । निश्चय ही यह साधु साध्वियों का सम्पूर्ण आचार है यावत् इसका पालन करने का यत्न करे। ऐसा मैं कहता हूँ ।
विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में कायोत्सर्ग की विधि एवं कायोत्सर्ग करने वाले साधक की चार प्रतिमाएं बताई गयी हैं ।
।। प्रथम स्थान सप्तिका समाप्त ॥
* स्थान सप्तिका नामक आठवां अध्ययन समाप्त
॥ द्वितीय चूला समाप्त ॥
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