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अध्ययन ७ उद्देशक २
ग्रहण करूंगा अन्यथा उत्कुटुक आसन अथवा निषद्या आसन द्वारा रात्रि व्यतीत करूंगा। यह छठी प्रतिमा है।
७. सातवीं प्रतिमा में कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं जिस स्थान की याचना करूंगा उस स्थान में पृथ्वी शिला, काष्ठ शिला तथा पलाल ( पराल ) आदि बिछा हुआ होगा तो उसे ग्रहण करूंगा अन्यथा उत्कुटुक आदि आसन के द्वारा रात्रि व्यतीत करूंगा। यह सातवीं प्रतिमा है।
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इन पूर्वोक्त सात प्रतिमाओं में से किसी साधु ने यदि कोई प्रतिमा ग्रहण की हुई है तो वह अन्य साधुओं की निन्दा नहीं करे। शेष वर्णन पिण्डैषणा अध्ययन में वर्णित सात पिण्डैषणा प्रतिमाओं के वर्णन के अनुसार जानना चाहिये ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में अवग्रह से संबंधित सात प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है।
इसमें प्रथम प्रतिमा सामान्य साधुओं के लिए है। दूसरी प्रतिमा का अधिकारी मुनिगच्छ में रहने वाले साम्भोगिक एवं उत्कृष्ट संयमनिष्ठ असाम्भोगिक साधुओं के साथ प्रेम भाव . रखने वाला होता है। तीसरी प्रतिमा उन साधुओं के लिए है जो आचार्य आदि के पास रह कर अध्ययन करना चाहते हैं। चौथी प्रतिमा उनके लिए है जो गच्छ में रहते हुए जिनकल्पी बनने का अभ्यास कर रहे हैं। पाँचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमा केवल जिनकल्पी मुनि से सम्बद्ध है। ये भेद वृत्तिकार ने किये हैं। मूल पाठ में किसी कल्प के मुनि का संकेत नहीं किया गया है । वहाँ तो इतना ही उल्लेख किया गया है कि मुनि इन सात प्रतिमाओं को ग्रहण करते हैं, चाहें वे जिन कल्प पर्याय में हों या स्थविर कल्प पर्याय में हों । सामान्य रूप से प्रत्येक साधु अपनी शक्ति के अनुसार अभिग्रह ग्रहण कर सकता है। इसी कारण सूत्रकार ने यह उल्लेख किया है कि स्थान संबंधी समस्त दोषों का त्याग करके साधु को अवग्रह की याचना करनी चाहिये।
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सुयं मे आउस तेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते तंजहा - देविंद उग्गहे १ राय उग्गहे २ गाहावइ उग्गहे ३ सांगारिय उग्गहे ४ साहम्मिय उग्गहे ५ ।
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एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं ॥ १६२ ॥
।। सत्तमं अज्झयणं उग्गह पडिमा समत्ता ॥
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