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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध +0000000000000000000000000000000000000000000000000000000. विहरिज्जा, छट्ठा पडिमा ६। अहावरा सत्तमा पडिमा - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहासंथडमेव उग्गहं जाइज्जा, तं जहा - पुढविसिलं वा कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव तस्स लाभे संते संवसिज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुओ वा णेसज्जिओ विहरिज्जा, सत्तमा पडिमा ७। इच्चेयासिं सत्तण्हं पडिमाणं अण्णयरं जहा पिंडेसणाए॥ ____कठिन शब्दार्थ - उवल्लिस्सामि - आश्रय लूंगा, निवास करूंगा, अहासमण्णागए - यथा समन्वागत-पहले से जैसा है, वैसा ही, अहासंथंडं -. जैसा बिछा हुआ हो। ..
भावार्थ - संयमशील साधु या साध्वी धर्मशाला आदि में आज्ञा लेने पर गृहपति अथवा गृहपति के पुत्रों से संबंधित ये जो उपरोक्त कर्म बंध के स्थान हैं उनका त्याग कर इन सात प्रतिमाओं के द्वारा अवग्रह की याचना करे, वे प्रतिमा इस प्रकार हैं - -- १. धर्मशाला आदि स्थानों का विचार कर वहां का स्वामी जितने समय के लिए जितने क्षेत्र में ठहरने की आज्ञा देगा उतने समय तक उतने क्षेत्र में मैं ठहरूंगा। यह पहली प्रतिमा
२. मैं अन्य साधुओं के लिए अवग्रह की याचना करूंगा तथा उनके द्वारा याचना किये गये स्थान में ठहरूंगा। यह दूसरी प्रतिमा है।
३. तीसरी प्रतिमा में कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं अन्य साधु के लिए अवग्रह की याचना करूंगा परंतु दूसरे भिक्षुओं द्वारा याचना किए गए अवग्रह स्थानों में मैं नहीं ठहरूंगा।
४. इसके पश्चात् चौथी प्रतिमा में साधु अभिग्रह करता है कि मैं दूसरे के द्वारा याचना किए गए अवग्रह स्थान में ठहरूंगा परन्तु अन्य के लिए अवग्रह की याचना नहीं करूंगा। यह चौथी प्रतिमा है। ___५. पांचवीं प्रतिमा में कोई साधु यह अभिग्रह धारण करता है कि मैं अपने लिए ही अवग्रह की याचना करूंगा किंतु अन्य दो, तीन, चार और पांच आदि साधुओं के लिए अवग्रह की याचना नहीं करूंगा। यह पांचवीं प्रतिमा है।
६. छठी प्रतिमा में कोई साधु इस प्रकार का अभिग्रह करता है कि मैं जिस स्थान की याचना करूंगा यदि उस अवगृहीत स्थान में तृण आदि का संस्तारक मिल जायगा तो उसे
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