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अध्ययन ७ उद्देशक २
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गृहस्थ की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर साधु उस स्थान में शाक्यादि श्रमणों या ब्राह्मणों के छत्र यावत् चर्मछेदनक आदि पडे हुए हों उनको भीतर से बाहर न निकाले और न ही बाहर से भीतर रखे तथा किसी सोये हुए श्रमण या ब्राह्मण को जागृत न करे और उनके साथ किचिन्मात्र भी अप्रीतिकर कार्य-प्रतिकूल व्यवहार न करे जिससे उनके मन को पीडा पहुंचे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु साध्वी किसी भी स्थान पर ठहरते समय इस बात का विशेष लक्ष्य रखे कि उसके किसी भी व्यवहार से मकान के मालिक अथवा वहां आने जाने वाले व्यक्तियों को किसी प्रकार का संक्लेश न पहुँचे। . ____ उपर्युक्त मूल पाठ में आये हुए 'से किं पुण तत्थ उग्गहंसि एवोग्गहियंसि' शब्दों का आशय इस प्रकार समझना चाहिए - 'वह साधु वहाँ पर अवग्रह के अनुज्ञा पूर्वक अवग्रह को ग्रहण करने के बाद फिर क्या करे?'
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा अंबवणं उवागच्छित्तए जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिट्ठाए से उग्गहं अणुजाणाविज्जा - कामं खलु जाव विहरिस्सामो, से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि अह भिक्खू इच्छिज्जा अंबं भुत्तए वा से जं पुण अंबं जाणिज्जा सअंडं जाव ससंताणगं तहप्पगारं अंबं अफासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा।
भावार्थ - यदि कोई साधु या साध्वी आम्रवन में ठहरना चाहे तो उस बगीचे के मालिक .या अधिष्ठाता से अवग्रह की आज्ञा मांगते हुए कहे कि - हे आयुष्मन् गृहस्थ! मैं यहां ठहरना चाहता हूं। आप जितने समय के लिये जितने क्षेत्र की आज्ञा देंगे उतने समय ठहर कर विहार कर दूंगा। आज्ञा प्राप्त होने पर साधु किसी कारण से आम खाना चाहे तो जो आम अण्डों से यावत् मकडी के जालों से युक्त हो तो उन्हें अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर ग्रहण नहीं करे। • से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण अंबं जाणिज्जा अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं अतिरिच्छछिण्णं अव्वोछिण्णं अफासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा॥
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण अंबं जाणिज्जा, अप्पंडं जाव संताणगं तिरिच्छछिण्णं वोच्छिण्णं फासुयं जाव पडिगाहिज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा अंबभित्तगं वा अंबपेसियं वा
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