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__ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
और उनके घनिष्ठ परिचय के कारण श्रावकों के मन में संदेह भी पैदा हो सकता है। अतः साधु को उनके साथ घनिष्ठ परिचय करने एवं भिक्षा आदि के लिए उनके साथ जाने का निषेध किया गया है। ___साधु आचार में शिथिलता करने वाले साधुओं के पांच भेद ग्रन्थों में बतलाये गये हैं। यथा -
१. पासत्थ (पार्श्वस्थ या पाशत्थ) - जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम के समीप रह कर भी उन्हें जीवन में नहीं उतारता है, उसे पार्श्वस्थ कहते हैं।
२. अवसन्न - संयम का पालन करते हुए जो संयम से थक गया है अतएव साधु समाचारी के विषय में प्रमाद करता है उसे अवसन्न कहते हैं।
३. कुशील - जो साधु के आचार में दोष लगाता है उसे कुशील कहते हैं।
४. संसक्त - मूल गुण और उत्तर गुण में दोष लगाने वाला संसक्त कहलाता है। जैसे - गाय के बारे में खल, कपासिया आदि अनेक चीजें मिली रहती हैं इसी प्रकार संसक्त साधु में भी गुण और दोष मिलते रहते हैं। उत्कृष्ट आचारी साधुओं के साथ उनको बताने के लिये वैसा आचरण करने लग जाता है और शिथिलाचारियों के साथ वैसा ही शिथिल बन जाता है। जैसे पानी तेरा रंग कैसा ? जिस रंग में मिलावे वैसा।।
५. यथाच्छन्द - उत्सूत्र (सूत्र विपरीत) प्ररूपणा करने वाला तथा सूत्र विपरीत आचरण करने वाला यथाच्छन्द कहलाता है।
इन पांचों को वन्दना करने वाले के कर्मों की निर्जरा नहीं होती मात्र कायक्लेश होता है और इसके सिवाय कर्म बन्ध भी होता है। पासत्थ आदि का संसर्ग करने वाले भी अवन्दनीय बतलाये गये हैं। . . (हरिभद्रीयावश्यकं वन्दनाध्ययन पृष्ठ ५१८)
(प्रवचन सारोद्धार पूर्वभाग गाथा १०३ से १२३) - वहाँ इनके भेद प्रभेद बतलाकर विस्तृत वर्णन किया गया है जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे णो अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा परिहारिओ वा अपरिहारियस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दिज्जा वा अणुपदिज्जा वा॥५॥
कठिन शब्दार्थ - णो - नहीं, दिजा - देवे, अणुपदिजा - दूसरों से दिलवावें।
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