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अध्ययन ७ उद्देशक १ .
२३१ .000000000000000000000000000000000000000000000000000000+ चमड़े आदि को काटने का लकड़ी आदि का उपकरण विशेष समझना चाहिये। व्यवहार सूत्र के आठवें उद्देशक में वय स्थविर साधुओं के लिए आवश्यकता होने पर इन छत्र आदि उपकरणों को रखने की विधि बताई है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइकुलेसु वा, परियावसहेसु वा, अणुवीइ उग्गहं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिट्ठए ते उग्गहं अणुण्णविज्जा कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो जाव आउसो! जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिया एइ तावं उग्गहं उग्गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो।
से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहयंसि जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उवागच्छिज्जा जे तेण सयमेसित्तए असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, तेण ते साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उवणिमंतिज्जा, णो चेव णं परवडियाए ओगिज्झिय ओगिज्झिय उवणिमंतिज्जा॥१५६॥
कठिन शब्दार्थ-ईसरे - ईसर-स्वामी, समहिट्ठए - अधिष्ठाता, अहालंदं - यथालन्दजितने समय के लिए आज्ञा दें, अहापरिणाय - यथापरिज्ञात, साहम्मिया - साधर्मिक, संभोइया - सांभोगिक, समणुण्णा - समनोज्ञ-उग्र क्रिया करने वाले, परवडियाए - दूसरे के लिये लाए हुए।
भावार्थ - साधु या साध्वी धर्मशाला आदि में जाकर और भली भांति देख कर एवं विचार कर उस स्थान की आज्ञा मांगे। उस स्थान के स्वामी या अधिष्ठाता से आज्ञा मांगते हुए कहे कि - हे आयुष्मन् गृहस्थ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो अर्थात् जितने समय के लिए जितने क्षेत्र में निवास करने की तुम आज्ञा दोगे, उतने समय तक उतने ही क्षेत्र में हम निवास करेंगे। अन्य जितने भी साधर्मिक साधु आयेंगे वे भी उतने काल तक उतने क्षेत्र में ठहरेंगे उक्त काल के बाद हम अन्यत्र विहार कर जाएंगे। .. इस प्रकार गृहस्थ की आज्ञा लेकर वहां रहे हुए साधु के पास अन्य साधर्मी, साम्भोगिक तथा समान समाचारी वाले और समनोज्ञ-उग्र विहार करने वाले साधु अतिथि के रूप में आ जाय तो वह साधु अपने द्वारा लाये हुए आहारादि का उसे आमंत्रण करे परन्तु दूसरों के लिए लाए हुए आहारादि के लिए उन्हें निमंत्रित नहीं करे। .
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