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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
परदत्तभोजी-दूसरे का दिया हुआ भोजन करने वाला श्रमण-तपस्वी साधु बनूंगा। मैं किसी प्रकार का पाप कर्म नहीं करूंगा। इस प्रकार की प्रतिज्ञा में उद्यत होकर हे भगवन् ! मैं सर्व प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूं।
इस प्रतिज्ञा से साधु ग्राम और नगर यावत् राजधानी में प्रवेश करके बिना दिए हुए अदत्त पदार्थ को स्वयं ग्रहण न करे, दूसरों से ग्रहण न करावे और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी न करे इतना ही नहीं किंतु जिनके साथ दीक्षित हुआ है या जिनके साथ रहता है उनके छत्र, दंड, मात्रक यावत् चर्मछेदनक आदि उपकरण विशेष हैं उनको बिना आज्ञा लिए और बिना प्रतिलेखन प्रमार्जन किए ग्रहण न करे किंतु पहले ही उनके पास अवग्रह की याचना करे अर्थात् आज्ञा मांगे, आज्ञा लेकर उनका प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके यतनापूर्वक उन पदार्थों को एक बार अथवा अधिक बार ग्रहण कर सकता है।
विवेचन - प्रस्तुत सुत्र में साधु के तीसरे अस्तेय महाव्रत का वर्णन किया गया है। साधु साध्वी कोई भी पदार्थ बिना किसी व्यक्ति की आज्ञा के ग्रहण न करे क्योंकि दीक्षा लेते समय वह तीन करण तीन योग से अदत्तादान का त्याग करता है।
प्रस्तुत सूत्र पाठ में छाता (छत्रक) और चर्मछेदनक आदि उपकरण का उल्लेख है जब कि दशवैकालिक सूत्र के तीसरे अध्ययन में 'छत्तस्स य धारणटाए' कह कर इसको अनाचीर्ण बताया है। फिर मूल पाठ में इन शब्दों का उल्लेख किस प्रकार हुआ? वृत्तिकार और चूर्णिकार तो इसका समाधान इस प्रकार देते हैं कि, कोंकण आदि देशों में जहाँ अत्यन्त वृष्टि होती है वहाँ वर्षा कल्प आदि के समय साधु-साध्वी अपवाद में छत्र रख सकते हैं
और चर्म छेदनक भी किसी कार्य के लिये प्रातिहारिक रूप में गृहस्थ के यहाँ से ला सकते हैं परन्तु उपकरण के रूप में इन्हें साथ नहीं रख सकते हैं।
पूज्य आचार्य श्री आत्मारामजी म. सा. ने इसका समाधान देते हुए लिखा है कि छत्र शब्द से कम्बल और छाता दोनों में से कोई भी पदार्थ हो सकता है। इसी तरह चर्म छेदनक का अर्थ चाकू (नख छेदनक-नेलकटर) किया है परन्तु ये दोनों समाधान आगमानुकूल सन्तोष जनक प्रतीत नहीं होते हैं। __ बहुश्रुत गुरुदेव इस संबंध में ऐसा फरमाया करते थे कि यहाँ पर 'छत्र' शब्द से वृद्ध अवस्था आदि के कारण से सूर्य की धूप सहन नहीं होने से आँख पर कपड़े आदि की पट्टी लगाई जाती है उसे यहाँ पर ग्रहण किया गया है और 'चर्म छेदनक' शब्द से - पतले
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