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अध्ययन १ उद्देशक १ 00000000000000000000000000...............................
भावार्थ - गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी औषधि (धान्य) के विषय में ऐसा जाने कि इनमें शस्त्र परिणत हो चुका है, इनकी योनि नष्ट हो चुकी है, इन्हें द्विदल (दो फाड़) कर दिया गया है, तिर्यक् छेदन हुआ है, जीव रहित है तथा मर्दित मूंग आदि की कच्ची फली को अचित्त एवं भग्न देखकर प्रासुक और एषणीय मानता हुआ साधु या साध्वी प्राप्त होने पर ग्रहण कर सकता है।
विवेचन - शंका - प्रथम सूत्र में सचित्त पदार्थ ग्रहण करने का निषेध कर दिया तो फिर प्रस्तुत सूत्र में सचित्त औषध एवं फलों के निषेध का क्यों वर्णन किया गया?
समाधान - जैनेतर साधु, वनस्पति में जीव नहीं मानते और वे सचित्त औषध एवं फलों का प्रयोग करते हैं इसलिये पूर्ण अहिंसक साधु के लिए यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वह सचित्त औषध एवं फलों को ग्रहण नहीं करे। अब सूत्रकार आहार की ग्राह्यता एवं अग्राह्यता का उल्लेख करते हुए फरमाते हैं -
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा पिहुयं वा बहुरयं वा भुंजियं वा मंथु वा चाउलं वा चाउलपलंबं वा सई भजियं अफासुर्य अणेसणिजं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहिजा॥ ... कठिन शब्दार्थ - पिहुयं - पौहे (होला) शाली, जव आदि के, बहुरयं - अधिक सचित रज हो, भुंजियं- भर्जित-अर्द्ध पक्व, मंथु - बैर आदि फल का चूर्ण, चाउलं - चावल, चाउलफ्लंबं- चावल अथवा धान्यादि का चूर्ण (आटा) सई - एक बार, भजियंसेका हुआ-अग्नि से भुना हुआ।
भावार्थ - साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होने पर जाने कि चावल, पोहे (होला) आदि धान्य, बहुत तुष वाले धान्य, अग्नि द्वारा अर्द्धपक्व धान्यों तथा .बैर आदि फलों का चूर्ण चावल अथवा चावल आदि धान्यों का योहा आदि एक बार भुना हुआ है तो उसे अप्रासुक अनेषणीय मानकर उपलब्ध होने पर भी ग्रहण न करे। - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिजा-पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा असई भजियं दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा भजियं फासुयं एसणिज्जं जाव लाभे संते पडिगाहिज्जा॥३॥
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