SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध ❖❖❖❖ सिया णं एयाए एसणाए एसमाणं परो वइज्जा आउसंतो समणा ! एज्जाहि तुमं मासेण वा दसराएण वा पंचराएण वा सुए वा सुयतरे वा, तो ते वयं आउसो! अण्णयरं वत्थं दाहामो, एयप्पगारं णिग्घोसं सुच्चा णिसम्म से पुव्वामेव आलोइज्जा आउसो इवा ! भइणि!, इ वा, णो खलु मे कप्पइ एयप्पगारे संगार - वयणे पडिणित्तए, अभिकंखसि मे दाउं इयाणिमेव दलयाहि, से सेवं वयंतं परो वइज्जा आउसंतो समणा ! अणुगच्छाहि तो ते वयं अण्णयरं वत्थं दाहामो, से पुव्वामेव आलोइज्जा आउसो ! इ वा, भइणि ! इ वा णो खलु मे कप्पइ एयप्पगारे संगारवयणे पडिसुणित्तए अभिकंखंसि मे दाउं ? इयाणिमेव दयाहि । से सेवं वयंतं परो णेया वइज्जा आउसो त्ति वा भइणि त्ति वा ! आहरेयं वत्थं समणस्स दाहामो, अवियाई वयं पच्छावि अप्पणो सयट्ठाए पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स जाव चेइस्सामो एयप्पगारं णिग्घोसं सुच्चा णिसम्म तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा ॥ कल, कठिन शब्दार्थ - दस राएण दस रात्रि अर्थात् दस दिन के बाद, सुय संगारवयणे - संकेत वचन अर्थात् प्रतिज्ञा वचन, आहर लाओ, पडिसुणित्तए - सुनना अर्थात् स्वीकार करना । भावार्थ - कदाचित् इन वस्त्रैषणाओं से वस्त्र की गवेषणा करने वाले साधु साध्वी के प्रति कोई गृहस्थ कहे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस समय जाओ और एक मास के बाद या दस दिन के बाद या पांच दिन के बाद अथवा कल या कल के अन्तर से (परसों) आना तब हम तुमको वस्त्र देंगे। इस प्रकार के शब्दों को सुन कर हृदय में धारण कर वह साधु साध्वी इस प्रकार कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा भगिनी ! मुझे इस प्रकार का प्रतिज्ञा वचन सुनना नहीं कल्पता अर्थात् मैं आप के इस प्रतिज्ञा वचन को स्वीकार नहीं कर सकता। यदि तुम मुझे इसी समय देना चाहते हो तो दे दो। साधु साध्वी के इस प्रकार कहने पर वह नेता - गृहस्थ घर के किसी सदस्य को कहे कि हे आयुष्मन् ! अथवा हे बहिन ! वह वस्त्र लाओ और साधु को दे दो। हम अपने लिये बाद में प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का समारंभ करके और वस्त्र बना लेंगे। गृहस्थ के इस प्रकार के शब्दों को सुन कर पश्चात् कर्म लगने से उस वस्त्र को अप्रासुक तथा अनेषणीय जान कर साधु साध्वी ग्रहण न करे । २०६ Jain Education International - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy