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________________ अध्ययन ५ उद्देशक १ २०५ .........................sssssss.kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk वस्त्रों में से किसी वस्त्र को दोगे या दोगी ? तथाप्रकार के वस्त्र की साधु या साध्वी पहले स्वयं याचना करे या गृहस्थ यदि बिना मांगे ही देवे तो प्रासुक तथा एषणीय मिलने पर ग्रहण कर ले, यह दूसरी प्रतिमा है। ___अब तीसरी प्रतिमा कहते हैं - वह साधु या साध्वी वस्त्र के विषय में जाने जैसे किगृहस्थ के अन्दर के पहनने के योग्य अथवा ऊपर पहनने योग्य चादर आदि तथा प्रकार के वस्त्र की स्वयं याचना करे या गृहस्थ बिना मांगे ही स्वयं देवे तो उस वस्त्र को प्रासुक और एषणीय जान कर मिलने पर ग्रहण करे। यह तीसरी प्रतिमा है। __ अब चौथी प्रतिमा कहते हैं - वह संयमशील साधु या साध्वी उज्झित धर्म वाला अर्थात् जिसे गृहस्थ ने भोग लिया है और जो उसके पुनः काम में आने वाला नहीं है इस प्रकार के वस्त्र की याचना करे जिसको अन्य शाक्यादि श्रमण यावत् भिखारी लोग भी नहीं लेना चाहते। इस प्रकार के. ऐसे उज्झित धर्म वाले वस्त्र को स्वयं मांगे अथवा गृहस्थ स्वयं ही साधु को दे तो प्रासुक यावत् एषणीय जान कर ग्रहण करे यह चौथी प्रतिमा है। इन चार प्रतिमाओं के विषय में जैसा पिण्डैषणा अध्ययन में वर्णन किया गया है वैसा ही समझना चाहिये। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र ग्रहण करने की चार प्रतिमा-विशेष प्रतिज्ञाओं का वर्णन किया गया है, यथा - - १. उद्दिष्ट प्रतिमा - अपने मन में पहले संकल्पित वस्त्र की याचना करना उद्दिष्ट प्रतिमा (प्रतिज्ञा) है। .. २. प्रेक्षित प्रतिमा - किसी गृहस्थ के यहां वस्त्र देख कर उस देखे हुए वस्त्र की ही याचना करना प्रेक्षित प्रतिमा है। ३. परिभुक्त प्रतिमा - गृहस्थ के अंतर परिभोग या उत्तरीय परिभोग या उसके पहने हुए वस्त्र की याचना करना परिभुक्त प्रतिमा है। ४, उज्झितधर्मा प्रतिमा - मैं वही वस्त्र ग्रहण करूँगा जो कि उज्झित धर्म वालाफैंकने योग्य है। यह उज्झित प्रतिमा कहलाती है। इस तरह के अभिग्रहों को धारण करके वस्त्र की याचना करने की विधि ठीक उसी तरह से बताई गई है जैसे पिण्डैषणा अध्ययन में आहार ग्रहण करने की विधि का उल्लेख किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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