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________________ अध्ययन ५ उद्देशक १ २०१ 000000000000000000000000rsrrrrrrrrrrr.000000000000000000. तरह एक साधर्मिणी साध्वी एवं बहुत सी साधर्मिणी साध्वियाँ एवं बहुत से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण आदि को गिन-गिन कर उनके उद्देश्य से जैसे औद्देशिक, क्रीत आदि तथा अपुरुषान्तर कृत आदि विशेषणों से युक्त आहार को ग्रहण करने का निषेध किया गया है उसी प्रकार यहाँ शेष पांचों आलापकों में बताए हुए बहुत से साधर्मिक आदि का उद्देश्य रख कर प्राणी आदि के समारंभ से निर्मित, क्रीत आदि तथा अपुरुषान्तकृत आदि विशेषणों से युक्त ऐसे वस्त्र ग्रहण के निषेध का तथा पुरुषान्तर कृत आदि होने पर ग्रहण करने का सारा वर्णन उसी प्रकार जान लेना चाहिए। विवेचन - वस्त्र ग्रहण करने की सारी विधि आहार ग्रहण करने की विधि की तरह है अतः सूत्रकार ने पिण्डैषणा अध्ययन की भलामण दी है। तदनुसार साधु साध्वी को आधाकर्म आदि दोषों से रहित वस्त्र ही ग्रहण करना चाहिये। से भिक्खू का भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जाणिज्जा, असंजए भिक्खुपडियाए कीयं वा धोयं वा रत्तं वा घटुं वा मटुं वा संमटुं वा संपधूमियं वा तहप्पगारं वत्थं अपुरिसंतरकडं जाव णो पडिगाहिज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा, परिसंतरकडं जाव पडिगाहिज्जा॥१४४॥ कठिन शब्दार्थ - कीयं - क्रीत-खरीदा हुआ, धोयं - धोया हुआ, रत्तं - रंगा हुआ, घटुं - घिसा हुआ, मटुं - घिसकर चिकना या मुलायम किया हुआ, संपधूमियं - अगरबत्ती आदि के धूप से सुवासित किया हुआ। ... भावार्थ - साधु या साध्वी वस्त्र के विषय में यह जाने कि किसी असंयमी गृहस्थ ने साधु के निमित्त वस्त्र खरीदा है, धोया है, रंगा है, घिसा है, चिकना या मुलायम किया है, संस्कारित किया है या अगरबत्ती इत्र आदि के धूप से सुवासित किया है तो तथा प्रकार के वस्त्र को जो कि पुरुषान्तर कृत नहीं हुआ हो तो ऐसे अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित वस्त्र को अप्रासुक और अनेषणीय जान कर साधु साध्वी मिलने पर भी उसे ग्रहण नहीं करे, यदि वह पुरुषान्तर कृत यावत् आसेवित है तो मिलने पर प्रासुक एवं एषणीय जान कर साधुसाध्वी उसे ग्रहण कर सकते हैं। ... विवेचन - साधु के लिए खरीदा गया वस्त्र साधु को लेना नहीं कल्पता परन्तु यदि उसका किसी व्यक्ति ने अपने लिए उपयोग कर लिया हो तो फिर वह वस्त्र साधु के लिये अकल्पनीय नहीं रहता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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