SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध ...................................................... ___ कठिन शब्दार्थ - गंतुं - जाकर, उज्जाणाई - उद्यान आदि में, पासायजोग्गा - प्रासाद-महल के योग्य, अंग्गलजोग्गा - अर्गला के योग्य, पीढ - पीढ, चंगबेर - काठ का बर्तन विशेष अर्थात् कठौती, णंगल - हल, कुलिय- कुल्हाडी, जंत - यंत्र, लट्ठी - लाठी, णाभि - चक्र की नाभि, गंडी - गंडी-सुनार का काष्ठो पकरण-एरण, आसणजोंग्गाआसन के योग्य, सयण - शयन, जाण - यान-शकट गाड़ी आदि, उवस्सयजोग्गा - उपाश्रय के योग्य अर्थात् उपाश्रय में लगने वाली लकड़ी के योग्य। भावार्थ - साधु अथवा साध्वी प्रयोजनवश उद्यान आदि में, पर्वतों पर और वनों में जाएं, वहां अत्यंत विशाल वृक्षों को देखकर इस प्रकार न बोले कि - यह वृक्ष प्रासादमहल में लगने वाली लकड़ी के योग्य है अथवा तोरण बनाने के योग्य है अथवा घर के योग्य है तथा इसका फलक-पाटिया बन सकता है, इसकी अर्गला बन सकती है और यह नौका के लिए अच्छा है। इसकी उदक द्रोणी (नाव में से पानी बाहर निकालने का साधन) अच्छी बन सकती है। यह पीठ बाजोट, चक्रनाभि अथवा गंडी (सुनार की एरण) के लिए अच्छा है। इसका आसन अच्छा बन सकता है। यह पलंग के योग्य है इससे यान-शकट गाड़ी आदि बनाये जा सकते हैं और यह उपाश्रय में लगने वाले स्तंभ आदि के योग्य है। साधु साध्वी को इस प्रकार की सावद्य यावत् जीवोपघातिनी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिये। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा तहेव गंतुमुज्जाणाई पव्वयाणि वणाणि य रुक्खा महल्ला पेहाए एवं वइज्जा, तंजहा-जाइमंता इ वा, दीहवट्टा इ वा, महालया इ वा, पयायसाला इ वा, विडिमसाला इ वा, पासाइया इ वा, जाव पडिरूवा इ वा, एयप्पगारं भासं असावजं जाव भासिजा। कठिन शब्दार्थ - जाइमंता - जातिमंत, दीह - दीर्घ, वट्टा - वृत्त-गोल, महालया - बड़े विस्तार वाले, पयायसाला-प्रयात शाखा-जिनमें शाखाएं फूट गई हैं, विडिमसालाजिनमें प्रशाखाएं फूट गई हैं। . भावार्थ - वह साधु या साध्वी उद्यान आदि में स्थित वृक्षों को देख कर प्रयोजन होने पर इस प्रकार कह सकता है कि - ये वृक्ष जातिमंत-उत्तम जाति के हैं अथवा दीर्घ-लम्बे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy