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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
त्ति वा उवासिए त्ति वा धम्मिए त्ति वा धम्मप्पिए त्ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभिकंख भासिज्जा ॥ १३४ ॥
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कठिन शब्दार्थ - भोई आप, भगवई हे भगवती ! ।
भावार्थ - साधु अथवा साध्वी किसी स्त्री को बुलाते समय अथवा बुलाने पर भी उसके नहीं सुनने पर इस प्रकार कहे - हे आयुष्मती ! हे भगिनी ! हे आदरणीय ! हे भगवती ! हे श्राविके! हे उपासिके ! हे धार्मिके ! हे धर्मप्रिये ! इस प्रकार की निरवद्य यावत् जीवोपघात रहित भाषा बोले ।
विवेचन - साधु साध्वी को किसी भी गृहस्थ के प्रति हलके एवं अवज्ञा पूर्ण निम्न स्तर के शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये इससे सुनने वाले के मन को आघात लगता है. एवं साधु की असभ्यता और अशिष्टता प्रकट होती है। इससे विपरीत साधु साध्वी को सदैव ऐसी मधुर निर्दोष एवं कोमल भाषा का प्रयोग करना चाहिये जिससे श्रोता के मन में हर्ष एवं उल्लास पैदा हो एवं साधु के प्रति उसकी श्रद्धा बढ़े।
उपरोक्त सूत्रों में भाषा सम्बन्धी आचार और अनाचार का विवेक बतलाया गया हैं । क्रोध, मान, माया और लोभ के वश बोली गयी भाषा सत्य होते हुए भी असत्य हो जाती है । क्रोध के वश होकर किसी को कह देना कि तू चोर है, बदमाश है अथवा धमकी देना, झिड़क देना, मिथ्या आरोप लगा देना आदि । अभिमान के वश किसी से कह देना कि मैं उच्च जाति का हूँ तू तो नीच जाति का है, मैं विद्वान् हूँ, तू मूर्ख है आदि । माया के वश किसी को ठगने के लिए बोली गयी भाषा । लोभ के वश किसी से अच्छा खान पान, मान सम्मान आदि पाने के लिये उसकी मिथ्या प्रशंसा करना । कठोरता वश जानते अजानते हुए किसी को मर्म स्पर्शी वचन बोल देना। किसी की गुप्त बात प्रकट कर देना । इसी प्रकार सर्व काल और क्षेत्र सम्बन्धी निश्चयात्मक वचन बोल देना ।
किसी को सम्बोधित कर बुलाने में भी भाषा का विवेक बतलाया गया है। आमंत्रण में जिस प्रकार पुरुष लिये हलके शब्दों का प्रयोग करने का निषेध किया है, उसी प्रकार स्त्री के प्रति भी कठोर और निन्दित शब्दों के प्रयोग का निषेध किया । पुरुष को सम्बोधित करने के लिये पूज्य और आदरणीय सम्बोधनों का कथन किया है उसी प्रकार स्त्री को सम्बोधित करने के लिए भी पूज्य और आदरणीय शब्दों का विधान किया है। शास्त्रकार की दृष्टि में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये समान दृष्टि है। यहाँ तक कि स्त्री के
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