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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
में जाय और एकांत में जाकर अपने भण्डोपकरण का प्रतिलेखन प्रमार्जन करे और प्रतिलेखन प्रमार्जन करके उन्हें एकत्रित करे। एकत्रित करके सिर से पाँव तक संपूर्ण शरीर का प्रमार्जन करे और आगार पूर्वक अन्न-पानी का त्याग करे (सागारी संथारा करे) तदन्तर एक पैर जल . में और एक पैर स्थल पर रख करके यतना पूर्वक उस नौका पर चढे।
विवेचन - यदि विहार करते समय मार्ग में नदी आ जाय और अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं हो और बिना नौका से नदी को पार करना कठिन हो, ऐसी परिस्थिति में साधु साध्वी किस प्रकार नौका का उपयोग करे, इसका उल्लेख उपरोक्त सूत्र में किया गया है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा णावं दुरुहमाणे णो णावाओ पुरओ दुरुहिज्जा, णो णावाए मग्गओ दुरुहिज्जा, णो णावाए मझओ दुरुहिज्जा, णो बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय अंगुलियाए उवदंसिय उवदंसिय ओणमिय ओणमिय उण्णमिय उण्णमिय णिज्झाइजा॥ से णं परो णावागओ णावागयं वइज्जाआउसंतो समणा! एयं ता तुम णावं उक्कसाहि वा वुक्कसाहि वा, खिवाहि वा रज्जुए वा गहाय आकसाहि, णो से तं परिण्णं परिजाणिज्जा, तुसिणीओ उवेहिज्जा॥
कठिन शब्दार्थ - पगिझिय - पकड़ कर, उवदंसिय - बता कर के, ओणमिय - नीचा झुक कर, उण्णमिय - ऊंचा करके, उक्कसाहि - खींचो, वुक्कसाहि - विशेष दिशा में खींचो, खिवाहि - खेओ-चलाओ। ____भावार्थ - साधु या साध्वी नौका पर चढ़ते हुए नौका के आगे, पीछे और मध्य भाग से न चढे किन्तु नौका के बाजू को पकड़ कर चढ़े, नौका में बैठ जाने के बाद अंगुलियों से निर्देश करके, अथवा आप ऊंचा या नीचा होकर जल को नहीं देखे। यदि नाविक अथवा नौका पर सवार अन्य व्यक्ति साधु से इस प्रकार कहे कि "हे आयुष्मन् श्रमण! तुम इस नौका को आगे-पीछे या अमुक दिशा की ओर खींचो, नाव को खेओ अथवा रस्सी पकड़ कर खींचो" तो साधु या साध्वी ऐसे वचनों को स्वीकार न करे और मौन रहे।
से णं परो णावागओ णावागयं वइज्जा-आउसंतो समणा ! एवं णो संचाएसि तुमं णावं उक्कसित्तए वा वुक्कसित्तए वा खिवित्तिए वा रज्जुए वा गहाय आकसित्तए आहर एयं णावाए रज्जुयं सयं चेव णं वयं णावं उक्कस्सिस्सामो
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