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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध •••••••••••..............................................
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने संस्तारक की चार प्रतिमाओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार है -
१. उद्दिष्टा - फलक आदि में से जिस किसी एक संस्तारक का नामोल्लेख किया है, उसी को मिलने पर ग्रहण करूंगा, दूसरे संस्तारक को ग्रहण नहीं करूंगा।
२. प्रेक्ष्या - जिस का पहले नामोल्लेख किया उसी को देख कर ग्रहण करूंगा, अन्य को नहीं।
३. विद्यमाना - यदि उद्दिष्ट और प्रेक्ष्या संस्तारक शय्यातर के घर में मिलेगा तो ग्रहण करूंगा अन्य स्थान से लाकर नहीं। . ४. यथा संस्तृतरूपा - यदि उपाश्रय में सहज रूप से रखा हुआ या बिछा हुआ पाट आदि संस्तारक मिलेगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं।
साधु साध्वी इन चारों में से कोई भी प्रतिमा (प्रतिज्ञा) ग्रहण कर सकता है। . .
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा संथारगं पच्चप्पिणित्तिए से जं पुण संथारगं जाणिज्जा सअंडं जाव ससंताणयं, तहप्पगारं संथारगं णो पच्चप्पिणिज्जा॥१०४॥ . .
कठिन शब्दार्थ - पच्चप्पिणित्तिए - वापस लौटाना।
भावार्थ - साधु अथवा साध्वी यदि संस्तारक गृहस्थ को वापिस देना चाहे और वह संस्तारक अंडों यावत् मकडी के जालों से युक्त हो तो उसे उसी अवस्था में वापस नहीं लौटावे।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा संथारगं पच्चप्पिणित्तिए से जं पुण संथारगं जाणिज्जा अप्पंडं जाव असंताणगं तहप्पगारं संथारगं पडिलेहिय 'पडिलेहिय पमग्जिय पमजिय आयाविय आयातिय विहुणिय विहुणिय तओ संजयामेव पच्चप्पिणिज्जा॥१०५॥
कठिन शब्दार्थ - आयाविय - आतापना देकर, विहुणिय - झाड़ कर।
भावार्थ - साधु अथवा साध्वी अण्डे एवं मकड़ी के जालों-सूक्ष्म जीव-जंतुओं से रहित जिस संस्तारक को पुनः लौटाना चाहे तो उसे सम्यक् प्रकार से बार-बार प्रतिलेखन प्रमार्जन करके, सूर्य ताप से आतापना देकर एवं यत्नापूर्वक झाड़ कर फिर गृहस्थ को लौटावे।
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