SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध .00000000000000000000000000000000000000000000............ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा संथारगं एसित्तए, से जं पुण संथारगं जाणिज्जा सअंडं जाव ससंताणगं तहप्पगारं संथारगं लाभे संते णो पडिगाहिज्जा। कठिन शब्दार्थ - संथारगं - संस्तारक-पाट, फलक आदि। भावार्थ - जो साधु या साध्वी तख्त, पाट, फलक आदि के विषय में संस्तारक की गवेषणा करनी चाहे तो संस्तारक के बारे में जाने कि-वह संस्तारक अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो ऐसे संस्तारक को मिलने पर भी ग्रहण न करे। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण संथारगं जाणिज्जा अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं गरुयं तहप्पगारं लाभे संते णो पडिगाहिज्जा॥ कठिन शब्दार्थ - गरुयं - भारी, अप्पंडं - अण्डों से रहित, अप्पसंताणं - जालों से रहित। भावार्थ - जो संस्तारक अंडादि यावत् जालों से रहित है, किन्तु भारी है तो ऐसे संस्तारक को साधु या साध्वी मिलने पर भी ग्रहण न करे। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण संथारगं जाणिज्जा अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं लहुयं अपाडिहारियं, तहप्पगारं संथारगं लाभे संते णो पडिगाहिज्जा॥ कठिन शब्दार्थ - लहुयं - छोटा (हल्का), अपाडिहारियं - अपडिहारी-अप्रातिहारिकगृहस्थ जिसे देने के बाद वापस नहीं लेना चाहता हो। भावार्थ - जो संस्तारक अंडों आदि से रहित हो, छोटा और हल्का भी हो, परन्तु अपडिहारी-गृहस्थ जिसे देने के बाद वापस लेना नहीं चाहता हो तो साधु या साध्वी ऐसे संस्तारक को मिलते हुए भी ग्रहण न करे। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण संथारगं जाणिज्जा अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं लहुयं पाडिहारियं णो अहाबद्धं तहप्पगारं लाभे संते णो पडिगाहिज्जा॥ भावार्थ - जो संस्तारक अण्डों आदि से रहित है, लघु है, गृहस्थ ने जिसे पुनः लेना भी स्वीकार कर लिया है परन्तु जो ठीक तरह से बंधा हुआ न हो (उसके बंधन शिथिल हो) हिलता-डुलता हो तो साधु या साध्वी ऐसे संस्तारक को मिलने पर भी ग्रहण न करे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy