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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
___ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा-इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णं अक्कोसंति वा जाव उद्दति वा णो पण्णस्स जाव चिंताए सेवं णच्चा तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा, सेजं वा, णिसीहियं वा चेइजा॥९३॥
कठिन शब्दार्थ-अण्णमण्णं - परस्पर, अक्कोसंति-आक्रोश करते हैं, उहवेंति - उपद्रव करते हैं।
भावार्थ - साधु या साध्वी जिस उपाश्रय के विषय में ऐसा जाने कि-वहाँ गृहस्थ, गृहस्थ की पत्नी यावत् दास दासियाँ परस्पर एक दूसरे को कोसती हैं, मारती हैं, पीटती हैं यावत् उपद्रव करती हैं तो बुद्धिमान् साधु ऐसे उपाश्रय में निवास आदि न करे।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा-इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्स गायं तिल्लेण वा, घएण वा, णवणीएंण वा, वसाए वा, अब्भंगेति वा मक्खेंति वा णो पंण्णस्स जाव चिंताए तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा, सेजं वा, णिसीहियं वा चेइज्जा॥९४॥ . कठिन शब्दार्थ - अब्भंगेंति - मर्दन करते हैं, मक्खेंति - लगाते हैं।
भावार्थ - जिस उपाश्रय में गृहस्थ यावत् दास दासियाँ आपस में तेल, मक्खन, घी और वसा से शरीर का मर्दन करते हैं या लगाते हैं जिससे स्वाध्यायादि धर्म चिंतन में बाधा आती हो तो ऐसे उपाश्रय में साधु-साध्वी को नहीं ठहरना चाहिए। . से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा-इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्स गायं सिणाणेण वा, कक्केण वा, लोद्देण, वा, वण्णेण वा, चुण्णेण वा, पउमेण वा, आघसंति वा, पघंसंति वा, उव्वलंति वा, उवट्टिति वा, णो पण्णस्स णिक्खमण जाव चिंताए तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज वां, णिसीहियं वा चेइज्जा ॥१५॥
भावार्थ - जिस उपाश्रय के विषय में साधु-साध्वी ऐसा जाने कि-यहां गृहस्थ यावत् नौकरानियाँ आपस में शरीर को जल, सुगंधित द्रव्य, लोध, चूर्ण और पद्म से मलं कर साफ करती हैं, मसल कर मैल उतारती हैं, उबटन (पीठी आदि) करती हैं जिससे साधु साध्वी
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