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________________ अध्ययन २ उद्देशक २ कल्पता है। इसी तरह जहाँ चातुर्मास किया है वहाँ दो चातुर्मास दूसरी जगह किये बिना पुनः वहाँ चातुर्मास करना नहीं कल्पता है तथा एक चातुर्मास दूसरी जगह किये बिना वहाँ मासकल्प करना भी नहीं कल्पता है । १२१ आचारांग सूत्र की कुछ प्रतियों में 'दुगणा तिगुणेणं' एवं कुछ प्रतियों में 'दुगुणा दुगुणेणं' पाठ मिलता है। अतः पाठान्तर के रूप में दोनों पाठ माने जाते हैं । 'दुगुणा तिगुणेणं' पाठ मानने पर उसका अर्थ 'शेषकाल रहने पर दुगुना काल निकालने के बाद पुनः शेषकाल या चातुर्मास काल रह सकते हैं । चातुर्मास काल रहने पर तिगुना काल निकालने के बाद पुनः उस क्षेत्र में शेष काल रहा जा सकता है और दो चातुर्मास बाहर निकालने बाद पुनः उस क्षेत्र में चातुर्मास किया जा सकता है।' इस प्रकार किया जाता है । 'दुगुणा दुगुणेणं' पाठ मानने पर भी उसका अर्थ यही किया जाता है कि शेषकाल या चातुर्मास काल रहने के बाद दुगुना-काल अन्यत्र निकालने के बाद पुनः उस क्षेत्र में शेषकाल एवं दो चातुर्मास अन्यत्र करने के बाद पुनः उस क्षेत्र में चातुर्मास किया जा सकता है। चातुर्मास के बाद दुगुना काल निकालने पर पुनः चातुर्मास आ जाता है। अतः वह काल तो स्वतः ही छूट जाता है - इस प्रकार दोनों का भावार्थ एक ही किया जाता है। एक में स्पष्ट उल्लेख है एवं एक में गर्भित समझा जाता है। शेष काल रहने पर भी जब अधिक सम्पर्क वर्जन की दृष्टि से आगमकार दुगुना काल बाहर निकाले बिना आने का निषेध करते हैं । तब चातुर्मास के बाद एक महीने ( या दो महिने) से पुनः उस क्षेत्र में शेष काल रह सकना किसी भी तरह से आगम संगत प्रतीत नहीं होता है एवं इन आगमपाठों से ऐसा अर्थ निकलता भी नहीं है । अतः चातुर्मास के बाद एक वर्ष तक पुनः उस क्षेत्र में ऋतुबद्धकाल में नहीं रहना अर्थ ही आगम-संगत प्रतीत होता है एवं धारणा भी ऐसी ही है। ३. इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहिणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तंजहा - गाहावई वा जाव कामकरीओ वा तेसिं च णं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवइ तं सद्दहमाणेहिं, पत्तियमाणेहिं, रोयमाणेहिं बहवे समण- माहणअतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेइयाइं भवंति तंजहा - आएसणाणि वा आयतणाणि वा, देवकुलाणि वा, सहाओ वा, पवाणि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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