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अध्ययन २ उद्देशक २
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विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु साध्वी गृहस्थ के साथ ठहरें तो कई प्रकार के दोषों की संभावनाएं रहेगी, उनके भावों में गिरावट आ सकती है। वह भोजन आदि में आसक्त हो कर संयम से गिर भी सकता है अतः साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए।
आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइणा सद्धिं संवसमाणस्स-इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सअट्ठाए विरूवरूवाइं दारुयाइं भिण्णपुव्वाइं भवंति। अह पच्छा भिक्खु पडियाए विरूवरूवाइं दारुयाइं भिंदिज वा किणिज्ज वा पामिच्चेज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कट्ट अगणिकायं उजालिज्ज वा पज्जालिज वा तत्थ भिक्खू अभिकंखिज्जा आयावित्तए वा पयावित्तए वा वियट्टित्तए वा। अह भिक्खू णं पुव्वोवइट्ठा एस पइण्णा एस हेऊ एस कारणे एस उवएसे जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा॥७४॥ - कठिन शब्दार्थ - दारुयाई - लकड़ियों को, भिण्णपुव्वाइं - पहले ही भेदन (तोड़) करके रखे हो, भिंदिज - भेदन करे-काटे, किणिज - खरीदे, पामिच्चेज - उधार ले। - भावार्थ - गृहस्थ के साथ निवास करना साधु साध्वी के लिए कर्म बंध का कारण है। गृहस्थ ने अपने स्वयं के लिए विविध प्रकार के काष्टों को भेदन करके एकत्रित कर रखे हों बाद में वह साधु साध्वी के लिए विविध प्रकार के लकड़ों को फाडेगा, खरीदेगा अथवा उधार लेगा, लकड़ी से लकड़ी का घर्षण करके आग सुलगाएगा, प्रज्वलित करेगा और उस समय कदाचित् मुनि की अग्नि के पास शीत निवारणार्थ आतापना लेने की इच्छा हो जाए, आसक्त होकर वहीं रहने की अभिलाषा हो जाए। अतः साधु साध्वी का पूर्वोपदिष्ट आचार है कि वह गृहस्थों के संसर्ग युक्त स्थान में निवास नहीं करे।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उच्चारपासवणेणं उब्बाहिज्जमाणे राओ वा वियाले वा गाहावइकुलस्स दुवारबाहं अवंगुणिज्जा तेणे य तस्संधियारी अणुपविसिज्जा, तस्स भिक्खुस्स णो कप्पइ एवं वइत्तए- "अयं तेणे पविसई णो वा पविसइ, उवल्लियइ वा णो वा उवल्लियइ, आवयइ वा णो वा आवयइ, वयइ वा णो वा वयइ, तेण हडं अण्णेण हडं, तस्स हडं अण्णस्स हडं, अयं तेणे
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