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________________ ११६ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध worrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr तो स्नान के त्यागी होते हैं, मोक प्रतिमाधारी भी होते हैं। अतः वह गंध गृहस्थ को प्रतिकूल प्रतीत होती है। साधु के कारण गृहस्थ अपने पहले करने के कार्य पीछे (बाद में) और बाद के कार्य को पहले करे और भोजनादि क्रियाएँ समय पर करे या नहीं करे। अतएव मुनि का यह आचार है कि गृहस्थों से युक्त स्थान (उपाश्रय) में कायोत्सर्ग ध्यान आदि क्रियाएँ नहीं करे। अर्थात् ऐसे उपाश्रय में न ठहरे। ___विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में साधु को गृहस्थ के साथ रहने का निषेध करते हुए बताया है कि साधु का आचरण गृहस्थ से भिन्न होता है। शौचाचार का पालन करने वाला व्यक्ति मुनि के जीवन को देख कर उससे घृणा कर सकता है। साधु के कारण गृहस्थ. अपनी क्रियाओं को आगे पीछे कर सकता है तो साधु भी गृहस्थों के कारण अपनी आवश्यक क्रियाओं को यथा समय करने में असमर्थ हो जाता है। इस तरह गृहस्थ के कारण साधु की साधना में अंतराय पड़ती है और साधु के कारण गृहस्थ के दैनिक कार्यों में बाधा आती है। इससे दोनों के मन में चिंता एवं एक दूसरे के प्रति बुरे भाव भी आ सकते हैं अतः साधु . साध्वी को गृहस्थ के साथ या गृहस्थ के संसर्ग वाले उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिये। : आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइहिं सद्धिं संवसमाणस्स-इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सअट्ठाए विरूवरूवे भोयणजाए उवक्खडिए सिया, अह पच्छा भिक्खुपडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडिज्ज वा उवकरिज वा, तं च भिक्खू अभिकंखिज्जा भुत्तए वा पायए वा वियट्टित्तए वा। अह भिक्खुणं पुव्योवइट्ठा एस पइण्णा एस हेऊ एस कारणे एस उवएसे जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वाणिसीहियं वा चेइज्जा॥७३॥ ____ कठिन शब्दार्थ - वियट्टित्तए - विशेष आसक्ति भाव रखे। भावार्थ - गृहस्थों से युक्त मकान में निवास करना साधु साध्वी के लिए कर्म बंध का कारण है। गृहस्थ स्वयं अपने लिए नाना प्रकार का भोजन तैयार करके साधु साध्वी के निमित्त से अशनादिक आहार बनाएगा, खाद्य सामग्री एकत्रित करेगा। ऐसे समय मुनि अशनादि को खाने-पीने की अभिलाषा करेगा अथवा उससे आसक्त होकर वहीं रहने की इच्छा करेगा। अतः साधु साध्वी के लिए यह पूर्वोपदिष्ट आचार है कि वह इस प्रकार के स्थान पर नहीं ठहरे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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