________________
अध्ययन २ उद्देशक १
णिण्णक्खू तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडे जाव चेइज्जा ॥
कठिन शब्दार्थ - उदगप्पसूयाणि - उदक प्रसूत - जल से उत्पन्न हुए, साहरइ ले जाता है। णिण्णक्खू - निकालता है।
भावार्थ - यदि कोई गृहस्थ साधु के निमित्त से जल से उत्पन्न होने वाले कंद, मूल, पत्र, पुष्प, फल, बीज अथवा अन्य किसी हरी वनस्पति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है अथवा अंदर से बाहर निकालता है तो ऐसा उपाश्रय जो अपुरुषान्तरकृत एवं अनासेवित हो साधु के लिए अकल्पनीय है। यदि ऐसा जाने कि वह पुरुषान्तरकृत एवं सेवन किया हुआ है तो प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर वहां यतना पूर्वक कायोत्सर्ग, शय्या और. स्वाध्याय आदि कर सकता है अर्थात् वहाँ ठहर सकता है।
१०७
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा - असंजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलगं वा णिस्सेणिं वा उदूखलं वा ठाणाओ ठाणं साहंरइ, बहिया वा णिण्णक्खू तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव णो ठाणं वा चेइज्जा । अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडे जाव चेइज्जा ॥ ६५ ॥
-
कठिन शब्दार्थ - उदूखलं - ऊखल को ।
भावार्थ - असंयत (गृहस्थ ) साधु साध्वी के निमित्त से पीठ, फलक, निसैनी (निसरणी ) या ऊखल आदि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है अथवा बाहर निकालता है तो इस प्रकार का उपाश्रय जो अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो, साधु साध्वी के लिए कल्पनीय नहीं है। अगर ऐसा जाने कि वह पुरुषान्तरकृत और अन्य के उपयोग में आ चुका है तो प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके यतनापूर्वक उसमें निवास, शय्या एवं स्वाध्याय आदि कर सकता है।
Jain Education International
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि किसी गृहस्थ ने साधु के निमित्त उपाश्रय के दरवाजे छोटे बड़े किए हैं या कन्द, मूल, वनस्पति आदि को दूसरे स्थान पर रखा है उपाश्रय को ठहरने योग्य बनाया है तथा उसमें स्थित पीठ फलक आदि को भीतर से बाहर या बाहर से भीतर रखा है उस स्थान में गृहस्थ ने निवास किया या सामायिक संवर आदि धार्मिक क्रियाएं करने के काम में लिया हो तो साधु उस मकान में ठहर सकता है ।
For Personal & Private Use Only
www.jalnelibrary.org