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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध •rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr के बाद आशंका का कारण नहीं रहता है। गृहस्थ के लिए बने हुए नये मकान में उतरने से गृहस्थ के शकुनादि समझने की संभावना रहती है। अतः नहीं उतरना चाहिए। इस प्रकार मकान में लीपना, पोतना, छपरा बनाना, वस्तुएं इधर-उधर रखना, कचरा निकालना आदि कार्य साधु के लिए गृहस्थ के द्वारा किए जाने पर बिना पुरुषान्तरकृत नहीं ठहरना चाहिए
और गृहस्थ कचरादि निकालता हो तो मना कर देना और नहीं माने तो नहीं ठहरना चाहिए। पुरुषान्तरकृत होने के बाद ठहर सकते हैं। साधु के लिए नींव से बनाया हुआ मकान सदोष है या नीचे का मकान तो निर्दोष है परन्तु ऊपर का मंजिल साधु के लिए बनाया या कोई एकाध कमरा बनाया है तो जो भाग निर्दोष है, वहाँ ठहर सकता है तथा साधु के लिए बनाए हुए भाग को आधाकर्मी समझ कर हमेशा के लिए वर्जन करना चाहिए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा - असंजए भिक्खुपडियाए खुड्डियाओ दुवारियाओ महल्लियाओ कुज्जा, जहा पिंडेसणाए जाव संथारगं संथारिज्जा बहिया वा णिण्णक्खू तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा। अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडे जाव आसेविए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता तओ संजयामेव जाव चेइज्जा॥
कठिन शब्दार्थ - खुड्डियाओ दुवारियाओ - छोटे द्वार को, महल्लियाओ कुन्जा - बडा करे, संथारगं संथारिज्जा - बिछौना बिछावे, णिण्णक्खू - निकाले।
भावार्थ - असंयत (गृहस्थ) ने साधु के निमित्त से उपाश्रय के छोटे द्वार को बड़ा अथवा बड़े द्वार को छोटा बनाया हो, कांटे आदि को दूर कर ठहरने योग्य बनाया हो शय्या संस्तारक भीतर से बाहर या बाहर से भीतर रखा हो ऐसा उपाश्रय जो अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो साधु या साध्वी वहां नहीं रहे। यदि ऐसा जाने कि उपाश्रय दूसरे को दे दिया है उसका उपयोग किया जा चुका है तो यतना पूर्वक प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके वहां निवास, शय्या और स्वाध्याय आदि कर सकता है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा - असंजए भिक्खुपडियाए उदगप्पसूयाणि वा कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि वा पुष्पाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा ठाणाओ ठाणं साहरइ बहिया वा
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