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________________ - अध्ययन १ उद्देशक ११ १०१ •rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr वगैरह के घड़े का धोया हुआ पानी आदि जिसको कोई भी पीने की इच्छा नहीं करे। वह 'उज्झित पानी' गिना जाता है इच्चेयासिं सत्तण्हं पिंडेसणाणं सत्तण्हं पाणेसणाणं अण्णयरं पडिमं पडिवजमाणे णो एवं वइजा-मिच्छा पडिवण्णा खलु एए भयंतारो अहमेगे सम्म पडिवण्णे। जे एए भयंतारो एयाओ पडिमाओ पडिवज्जित्ता णं विहरंति जो य अहमंसि एयं पडिमं पडिवजित्ताणं विहरामि सव्वे वि ते उ जिणाणाए उवट्ठिया अणुण्णसमाहीए एवं च णं विहरंति॥ एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं॥६३॥ .. कठिन शब्दार्थ - पडिमं - प्रतिमा, पडिवजमाणे - ग्रहण करते हुए, मिच्छा - मिथ्या, पडिवण्णा - प्रतिपन्न-सम्यक् प्रकार से प्रतिज्ञा ग्रहण की है, भयंतारो - भय से रक्षा करने वाले-साधु, सम्मं - सम्यक्, पडिवण्णे - प्रतिपन्न, जिणाणाए - जिनेश्वर भगवान् की आज्ञा में, उवट्ठिया - उपस्थित, अणुण्णसमाहीए - परस्पर समाधि में। __भावार्थ - इस प्रकार इन सात पिंडैषणाओं और सात पानैषणाओं में से किसी भी एक प्रतिमा को धारण करने वाला साधु इस प्रकार नहीं कहे कि- "ये सब अन्य साधु साध्वी सम्यक् प्रकार से प्रतिमाओं को वहन करने वाले नहीं है केवल मैं अकेला ही सम्यक् प्रकार से प्रतिमा धारण करने वाला हूँ" परन्तु इस प्रकार कहे कि-ये सब विचरण करने वाले प्रतिमाधारी साधु साध्वी (और मैं स्वयं भी प्रतिमा धारण करके) जिनाज्ञानुसार संयम में उद्यत हैं और परस्पर समाधि पूर्वक विचरते हैं, इस तरह अहंकार भाव का त्याग करे। यही साधु साध्वियों का समग्र आचार है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु या साध्वी को अपने त्याग का अपने अभिग्रह आदि का गर्व नहीं करना चाहिए और अन्य साधुओं को अपने से हीन नहीं समझना चाहिये। उसे तो गुण सम्पन्न साधकों के गुणों को देख कर प्रसन्न होना चाहिये और उनके गुणों की प्रशंसा करनी चाहिये, इसी से आत्मा का विकास होता है। ॥ प्रथम अध्ययन का ग्यारहवां उद्देशक समाप्त॥ ॐ पिण्डैषणा नामक प्रथम अध्ययन समाप्त ® Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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