________________
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में विशिष्ट अभिग्रहधारी मुनियों के लिये सात पिंडैषणा और सात पानैषणा का वर्णन किया गया है। ये अभिग्रह जिनकल्प एवं स्थविरकल्प दोनों तरह के मुनियों
लिए है।
१००
सात पिण्डैषणाओं के नाम इस प्रकार हैं १. असंसृष्टा २. संसृष्टा ३. उद्धृता ४. अल्पलेपा (अलेपा-लेप रहित ) ५. उपस्थिता या उद्गृहीता ६. प्रगृहीता और ७. उज्झितधर्मिका। तथा इसी प्रकार संक्षेप में सात पानैषणाएँ इस प्रकार हैं। १. असंसृष्टा २. संसृष्टा ३. उद्धता ४. अल्पलेपा (लेप रहित ) ५. उद्गृहीता ६. प्रगृहीता और ७. उज्झित धर्मा अलिप्त हाथ व अलिप्त पात्र एवं अल्प लेप तथा अल्प पश्चात्कर्म का आशय इस प्रकार है जिस पानी से हाथ- पात्रादि स्निग्ध ( चिकने) अथवा खराब होवे और जिस पानी से खरड़ा (भरा) हुआ पात्र दूसरे पानी से धोये बिना रात्रि में नहीं रख सकते इसलिए इनको सलेप कहा जाता है । परन्तु जो उष्ण पानी, राख का पानी ( वासण धोया हुआ पानी), तिल, तुष (फोंतरा - छिलके), जव, चावलादि से धोये हुए पानी का लेप पात्र के नहीं लगता है। इन पानी से खरडे हुए पात्रों को दूसरे पानी से धोये बिना मात्र पोंछ कर रात्रि में रख सकते हैं। इसलिए आगमकारों ने 'अल्पलेप वाला पानी' कहा है। इस पानी को लेने से 'अप्पे पच्छाकमे' अर्थात् पात्र को दूसरे पानी से धोने रूप पश्चात्कर्म नहीं करना पड़ता है, ऐसे पानी को अलिप्त पात्र वाला समझना चाहिए। ऐसा पानी चौथी पाणैषणा में ग्रहण किया जाता है।
-
Jain Education International
-
दो प्रकार के मुनि होते हैं यथा १. गच्छान्तर्गत अर्थात् गच्छ में रहे हुए स्थविर कल्पी । २. गच्छविनिर्गत अर्थात् आचार्य की आज्ञा लेकर गच्छ से निकल कर जिनकल्प अङ्गीकार करने वाले जिनकल्पी । इन सात पिण्डैषणाओं में से जिनकल्पी पांच पिण्डैषणाओं से आहार ग्रहण कर सकता है। पहली और दूसरी दो पडिमाओं से नहीं। पहली पडिमा इस प्रकार है - असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र और सावशेष द्रव्य । दूसरी पडिमा इस प्रकार है. संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र, सावशेष द्रव्य । गृहस्थ के यहाँ सावशेष द्रव्य नहीं होने (रहने) पर भी गच्छ वालों को बाल, ग्लान आदि साधुओं से युक्त होने से लेना कल्पता है । स्थविर कल्पी मुनि सातों पडिमाओं में से किसी भी पडिमा में आहार पानी ग्रहण कर सकता है। सातवीं पानैषणा में 'उज्झित पानी' का आशय इस प्रकार समझना चाहिए - गुड़
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org