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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
यही संयमशील साधु साध्वियों का समग्र आचार है।
विवेचन - शंका - नमक सचित्त होता है और उसके लिये अप्रासुक शब्द का प्रयोग भी हुआ है। फिर उसे खाने एवं सांभोगिक साधुओं में बांटने की आज्ञा कैसे दी गई है? .
समाधान - आगम में जो खाने का आदेश दिया गया है, वह अचित्त नमक की अपेक्षा से दिया गया है। किसी शस्त्र के प्रयोग से जो नमक अचित्त हो गया है और वह भूल से दे दिया गया है तो गृहस्थ को पूछ कर उसके कहने (आज्ञा होने) पर साधु खा सकता है।
गृहस्थ के घर में पीसी हुई शक्कर और पीसा हुआ नमक दोनों होते हैं दोनों पासपास रखे हुए हों और गृहस्थ शक्कर देना चाहता हो किन्तु भूल से नमक का पात्र उठाकर नमक दे दिया हो तो वैसी स्थिति में वापिस गृहस्थ को पूछकर उसकी आज्ञा लेकर उस अचित्त नमक को साधु-साध्वी काम में ले सकने की विधि यहां पर बतलाई गयी है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अफासुयं' (अप्रासुक) शब्द सचित्त के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है अपितु अकल्पनीय अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आगम की एक शैली रही है कि एक शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है। __समर्थ समाधान भाग १ के प्रश्न संख्या ११२ के उत्तर में इसके संबंध में अच्छी तरह से समझाया गया है। जिज्ञासुओं को वह स्थल देखना चाहिए।
॥प्रथम अध्ययन का दसवां उद्देशक समाप्त॥
प्रथम अध्ययन का ग्यारहवा उद्देशक भिक्खागा णामेगे एवमाहंस समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम वा दूइजमाणे मणुण्णं भोयणजायं लभित्ता से य भिक्खू गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह, से य भिक्ख णो भुजिज्जा तुम चेव णं भुजिज्जासि, से एगइओ भोक्खामि त्ति कट्ट पलिउंचिय पलिउंचिय आलोइजा तंजहा - इमे पिंडे, इमे लोए, इमे तित्तए, इमे कडुए, इमे कसाए, इमे अंबिले, इमे महुरे, णो खलु इत्तो किंचि गिलाणस्स सयइ त्ति माइट्ठाणं संफासे णो एवं करिजा तहाठियं आलोइजा
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