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________________ ५६ श्री श्री श्री * संबंधी हिंसा में लग कर वायुकायिक जीवों का आरम्भ समारम्भ करते हैं वे वायुकायिक हिंसा के साथ तदाश्रित अन्य अनेक प्रकार के छोटे-बड़े ( त्रस - स्थावर) जीवों की भी हिंसा करते हैं। विवेचन - जो वायुकाय का स्वयं आरम्भ समारम्भ नहीं करते हैं, दूसरों से नहीं करवाते हैं और करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करते हैं वे ही सच्चे अनगार हैं। ऐसे आत्म साधकों को वायुकाय का आरम्भ करने वाले वेषधारियों से पृथक् समझने का सूत्रकार का निर्देश हैं । जो वेषधारी साधु अपने आप को अनगार कहते हुए भी गृहस्थ के समान वायुकाय का आरम्भ समारम्भ करते हैं, वे वास्तव में अनगार नहीं हैं । वायुकायिक हिंसा के कारण आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध ) ❀❀❀❀❀❀❀ Jain Education International (५७) तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणण- पूयणाए, जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं, से सयमेव वाउत्थं समारंभ, अण्णेहिं वा वाउसत्थं समारंभावेइ अण्णे वा वाउसत्थं समारंभंते समणुजाण, तं से अहियाए तं से अबोहीए । भावार्थ इस वायुकाय के आरम्भ के विषय में निश्चय ही भगवान् महावीर स्वामी ने परिज्ञा (विवेक) फरमाई है। इस जीवन के लिए अर्थात् इस जीवन को नीरोग और चिरंजीवी बनाने के लिए परिवन्दन प्रशंसा के लिए, मान के लिए, पूजा प्रतिष्ठा के लिए, जन्म मरण से छूटने के लिए और दुःखों का नाश करने के लिए वह स्वयं वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है। यह हिंसा उसके अहित के लिए होती है, उसकी अबोधि के लिए होती है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि अज्ञानी जीव किन किन कारणों से वायुकाय का आरम्भ समारम्भ करते हैं। यह आरम्भ उस जीव के लिए अहितकारी, दुःखदायक और अबोध के लिए होता है। अतः विवेकी पुरुष को वायुकाय की हिंसा से बचना चाहिए । (५८) सेतं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा अंतिए - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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