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________________ प्रथम अध्ययन - सातवाँ उद्देशक - वायुकायिक जीव हिंसा निषेध 事來麼事部部參事部部參事事事部部參事事帶來傘傘傘傘傘傘事非事事 इस जिनशासन में जो शांति प्राप्त और द्रविक अर्थात् दयाई हृदय वाले संयमी मुनि हैं वे वायुकाय का आरम्भ करके जीना नहीं चाहते। - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वायुकायिक जीवों की हिंसा का निषेध किया गया है। यहाँ 'एज' शब्द वायुकाय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ‘एज' शब्द 'एजूकंपने' धातु से बना है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है - "एजतीत्येजी वायुःकम्पनशीलत्वात्' अर्थात् कम्पनशील होने के कारण वायु को 'एज' कहते हैं। वायुकाय के आरम्भ से निवृत्त होने में वही व्यक्ति समर्थ है जो आतंकदर्शी (चार गतियों के दुःखों का जानने वाला एवं पाप कार्य से डरने वाला) है, वायुकाय जीवों की हिंसा से तीव्र घृणा होने पर ही वह हिंसा छुटती है। जैसे वमन की हुई वस्तु के प्रति घृणा होने से उसका पुनः सेवन नहीं किया जाता है। आरंभ को अहितकारी मानता है तथा सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझता है। अर्थात् जो पुरुष यह जानता है कि “जिस प्रकार मुझे सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है उसी प्रकार दूसरे समस्त प्राणियों को भी सुख प्रिय और दुःख अप्रिय हैं" वही पुरुष वायुकाय के आरम्भ का त्याग करने में समर्थ होता है। .. सम्यग्-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र की साधना से परम शांति को प्राप्त संयमी साधक वायुकायिक जीवों की हिंसा करके अपने जीवन को टिकाए रखने की आकांक्षा नहीं रखते। यानी उन्हें अपने जीवन की. अपेक्षा दूसरों के जीवन की ज्यादा चिंता रहती है। वे अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की हिंसा की आकांक्षा नहीं रखते हुए प्राणी जगत् की दया, रक्षा एवं अनुकम्पा करते हैं इसीलिये अहिंसा का इतना सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ स्वरूप जैन धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्म में नहीं मिलता है। (५६) ... लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं, वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ। भावार्थ - संयमी साधक वायुकाय का आरम्भ करने में लज्जा का अनुभव करते हैं तू. उन्हें पृथक् देख! अर्थात् वायुकाय का आरम्भ करने वाले साधुओं से उन्हें भिन्न समझ। कुछ वेषधारी 'हम अनगार-गृहत्यागी हैं' ऐसा कथन करते हुए भी नाना प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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