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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) : 88888@RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRBeeg
एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेए आरंभा अपरिणाया भवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेए आरंभा परिणाया भवंति। तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं वणस्सइसत्थं समारंभेजा, णेवण्णेहिं वणस्सइसत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे वणस्सइसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा, जस्सेते वणस्सइसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि॥४५॥ "
॥ पढमं अज्झयणं पंचमोद्देसो समत्तो॥ भावार्थ - इस प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का समारम्भ करने वाला पुरुष वास्तव में इन आरम्भों - हिंसा संबंधी प्रवृत्तियों के कंटु परिणामों एवं जीव की वेदना से अपरिज्ञात - अनजान है। जो इन वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का प्रयोग नहीं करता, वह इन आरम्भों का ज्ञाता होता है। : .. - बुद्धिमान् पुरुष वनस्पतिकाय के आरम्भ-समारम्भ को कर्मबन्ध का कारण जान कर स्वयं वनस्पतिकाय का समारम्भ न करे, न दूसरों से वनस्पतिकाय का समारम्भ करवाएं और वनस्पतिकाय का समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करें।
जिसने वनस्पतिकाय के समारम्भ को जान कर त्याग दिया है, वही मुनि परिज्ञातकर्मा होता है - ऐसा मैं कहता हूं। - विवेचन - वनस्पतिकाय जीव (सचेतन) है इसलिये उसका आरम्भ करना पाप का कारण है। यह जब तक जीव नहीं जानता है तब तक उसका त्याग नहीं कर पाता है। जो पुरुष वनस्पतिकाय के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानता है वही वनस्पतिकाय के आरम्भ का त्यागी हो सकता है। आरम्भ में लगा पुरुष हिंसा संबंधी प्रवृत्तियों के कटु परिणामों से अनजान होता है तथा जो हिंसा संबंधी प्रवृत्तियों एवं जीवों की वेदना का ज्ञाता होता है वह हिंसा से मुक्त होता है। ___प्रस्तुत सूत्र का सार यही है कि मुमुक्षु वनस्पतिकायिक जीवों पर किये जाने वाले शस्त्र प्रयोग से जो उन्हें वेदना होती है और इससे जो कर्मबन्ध होता है उसे समझें और तीन करण तीन योग से वनस्पतिकाय के आरम्भ का त्याग करें।'
"त्ति बेमि' अर्थात् श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू! जिस प्रकार मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना था उसी प्रकार मैं तुम्हें कहता हूं।
॥ इति प्रथम अध्ययन का पांचवां उद्देशक समाप्त॥
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