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________________ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 來來來來來來來來來聊聊串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串 (२६) कप्पइ णे कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए, पुढो सत्थेहिं विउटुंति एत्थऽवि तेसिं णो णिकरणाए। . कठिन शब्दार्थ - कप्पड़ - कल्पता है, णे - हम को, पाउं - पीना, विभूसाए - विभूषा के लिए, सत्थेहिं - शस्त्रों से, विउति - हिंसा करते हैं, णो णिकरणाए - निर्णय (निश्चय) करने में समर्थ नहीं हैं। ___ भावार्थ - अन्यतीर्थी (आजीवक एवं शैवमत वाले) कहते हैं कि - हमें सचित्त (कच्चा) जल पीना कल्पता है अथवा कच्चे जल से हाथ पैर धोना, स्नान करना एवं वस्त्र आदि धोना कल्पता है। इस प्रकार अन्यतीर्थी नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा जलकाय के जीवों की हिंसा करते हैं। इस विषय में उनके द्वारा मान्य सिद्धान्त - शास्त्र भी निश्चय करने में समर्थ नहीं हैं क्योंकि वे राग द्वेष रहित आप्त पुरुषों द्वारा रचे हुए नहीं हैं। अतः अपने शास्त्र का प्रमाण देकर जलकाय की हिंसा करने वाले साधु हिंसा के पाप से विरत नहीं हो सकते हैं। ... विवेचन - अन्यतीर्थियों का अपने शास्त्र के अनुसार यह कथन कि “पीने के लिये अथवा विभूषा के लिए सचित्त जल का प्रयोग हमें कल्पता है" अज्ञान मूलक एवं मिथ्या है। क्योंकि उनके शास्त्र आप्त पुरुषों द्वारा रचित नहीं होने के कारण प्रामाणिक नहीं है। इसलिये सचित्त जल प्रयोग को निर्दोष नहीं कहा जा सकता है। अप्कायिक जीवों के आरम्भ का निषेध (२७) ... एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेए आरंभा परिण्णाया भवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेए आरंभा परिण्णाया भवंति। तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं उदयसत्थं समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं उदयसत्थं समारंभावेजा उदयसत्थं समारंभंतेऽवि अण्णे ण समणुजाणेज्जा। जस्सेए उदयसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हुमुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि। ॥ पढमं अज्झयणं तइओद्देसो समत्तो॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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