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प्रथम अध्ययन
कठिन शब्दार्थ - उदयणिस्सिया
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तीसरा उद्देशक - अप्काय सजीव है
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अकाय के आश्रित
अनेक, उदयजीवा - 'जल रूप जीव, अणुवी
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भी भी भी भी भी भी भी भी भी भीड़ भी भी भ
(२५)
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शस्त्र, पवेइयं - कहे हैं।
भावार्थ - मैं कहता हूँ कि अप्काय के आश्रय में रहने वाले अनेक प्राणी एवं जीव हैं। हे शिष्य ! इस जैन दर्शन में निश्चय ही जल रूप जीव कहे गये हैं । अप्काय के जो शस्त्र हैं उन पर चिन्तन करके देख! भगवान् ने अप्काय के अनेक (पृथक्-पृथक् ) शस्त्र कहे हैं।
विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट किया गया है कि अप्काय (जल) सजीव है और जल के आश्रित अनेक प्रकार के छोटे बड़े ( त्रस - स्थावर) जीव रहते हैं। क्योंकि जैन दर्शन के अलावा अन्य दर्शन जल को सजीव नहीं मानते हैं । अप्काय को सजीव मानना जैन दर्शन की मौलिक मान्यता है। जैनागमों में जल के तीन भेद बताये गये हैं १. सचित्त - जीव सहित २. अचित्त - जीव रहित (निर्जीव) और ३. मिश्र - सचित्त और अचित्त का मिश्रण ।
अग्नि एवं स्वकाय, परकाय आदि शस्त्रों के सम्पर्क से सचित्त जल अचित्त (निर्जीव) हो जाता है। जिस जल का वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदल गया हो वह जल अचित्त माना जाता है । ऐसे अचित्त जल को ही जैन साधु अपने उपयोग में लेते हैं, सचित्त और मिश्र जल को नहीं ।
कुछ प्रतियों में " पुढो सत्थं पवेइयं" के स्थान पर " पुढोऽपासं पवेइयं " पाठान्तर भी मिलता है। जिसका अभिप्राय है - " शस्त्र परिणत जल ग्रहण करना अपाश - अबन्धन है, कर्मबन्ध का कारण नहीं है । "
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अप्काय के आश्रय में रहने
विचार कर, सत्थं
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अदुवा अदिण्णादाणं ।
भावार्थ - अप्काय की हिंसा, सिर्फ हिंसा ही नहीं अदत्तादान चोरी भी है।
विवेचन जैसे हमें अपना शरीर प्रिय है वैसे ही प्रत्येक प्राणी को अपना शरीर, अपना जीवन प्रिय होता है, वह उसे अपनी इच्छा से छोड़ना नहीं चाहता। जल, जलकाय के जीवों की सम्पत्ति है। वे उसे देते नहीं हैं । किंतु अज्ञानी जीव उनसे जबरदस्ती से छीनते हैं । अतः जल के जीवों का प्राण हरण करना हिंसा तो है ही साथ ही उनके प्राणों की चोरी भी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि किसी भी जीव की हिंसा, हिंसा के साथ साथ अदत्तादान भी है। अतः सचित्त जल का उपभोग करने वाला हिंसा के साथ अदत्तादान का भी दोषी है।
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