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- प्रथम अध्ययन - तीसरा उद्देशक - अप्काय की सजीवता
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विवेचन - जो अप्काय का स्वयं आरम्भ-समारम्भ नहीं करते हैं, दूसरों से नहीं करवाते हैं और आरम्भ-समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करते हैं। वे ही सच्चे अनगार हैं। ऐसे आत्मसाधकों को अप्काय का आरम्भ करने वाले वेषधारी साधकों से पृथक् समझने का सूत्रकार का निर्देश है। __जो वेषधारी साधु अपने आप को अनगार कहते हुए भी गृहस्थ के समान अप्काय का आरम्भ समारम्भ करते हैं, वे वास्तव में अनगार नहीं हैं। ऐसे साधुओं का अनुकरण नहीं करना चाहिये।
जो वस्तु, जिस जीवकाय के लिये मारक होती है वह उसके लिए शस्त्र है। नियुक्तिकार ने गाथा ११३-११४ में अंकाय के शस्त्र इस प्रकार बताये हैं - ... ... १. उत्सेचन - कुएं से जल निकालना २. गालन - जल छानना ३. धोवन - जल से
बर्तन आदि धोना ४. स्वकायशंस्त्र - एक स्थान का जल दूसरे स्थान के जल का शस्त्र है ५. परकायशस्त्र - मिट्टी, तेल, क्षार, शर्करा, अग्नि आदि ६. तदुभयशस्त्र - जल से भीगी मिट्टी आदि और ७. भावशस्त्र - असंयम।
अप्रकायिक हिंसा के कारण ..
... तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-: माणण-पूयणाए जाइमरणमोयणाए, दुक्खपडिघायहेडं, से सयमेव उदयसत्थं
समारंभइ, अण्णेहिं वा उदयसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा उदयसत्थं समारंभंते · समणुजाणइ, तं से अहियाए तं से अबोहीए। ..
भावार्थ - इस अप्काय के आरम्भ के विषय में निश्चय ही भगवान् महावीर स्वामी ने परिज्ञा (विवेक) फ़रमाई है। इस जीवन के लिये अर्थात् इस जीवन को नीरोग और चिरंजीवी बनाने के लिये, परिवन्दन-प्रशंसा के लिये, मान के लिये, पूजा प्रतिष्ठा के लिये, जन्म मरण से छूटने के लिये और दुःखों का नाश करने के लिये वह स्वयं अपकायिकं जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है। यह हिंसा उसके अहित के लिए होती है, उसकी अबोधि के लिए होती है।
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