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________________ प्रथम अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - पृथ्वीकायिक जीवों के आरंभ का निषेध - २१ अनजान है। जो इन पृथ्वीकायिक जीवों पर शस्त्र का प्रयोग नहीं करता वह इन आरम्भों का ज्ञाता होता है। विवेचन - पृथ्वीकाय जीव है, इसलिए उसका आरम्भ करना पाप का कारण है, यह जब तक जीव नहीं जानता है तब तक उसका त्याग नहीं कर सकता है। जो पुरुष पृथ्वीकाय के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानता है वही पृथ्वीकाय के आरंभ का त्यागी हो सकता है। आरंभ में लगा पुरुष हिंसा संबंधी प्रवृत्तियों के कटु परिणामों से अनजान होता है। जो हिंसा संबंधी प्रवृत्तियों एवं जीवों की वेदना का ज्ञाता होता है वह हिंसा से मुक्त होता है। (१७) तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं पुढविसत्थं समारंभेजा, णेवण्णेहिं पुढविसत्थं समारंभावेजा, णेवण्णे पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा। - जस्स एए पुढविकम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि। ॥ पढमं अज्झयणं बीओ उद्देसो॥ भावार्थ - बुद्धिमान् पुरुष पृथ्वीकाय के आरम्भ-समारम्भ को कर्मबन्ध का कारण जान कर स्वयं पृथ्वीकाय का समारम्भ न करे, न दूसरों से पृथ्वीकाय का समारम्भ करवाए और पृथ्वीकाय का समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करे। ___ जिसने पृथ्वीकाय के समारम्भ को जान लिया है और त्याग दिया है वही मुनि परिज्ञातकर्मा होता है - ऐसा मैं कहता हूं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र का सार यही है कि मुमुक्षु पृथ्वीकायिक जीवों पर किये जाने वाले शस्त्र प्रयोग से जो उन्हें वेदना होती है तथा उससे आरम्भ-समारम्भ करने वाले व्यक्ति को जो कर्मबन्ध होता है उसे समझे और तीन करण तीन योग से पृथ्वीकायिक हिंसा का त्याग करे। तिबेमि अर्थात् - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू! जिस प्रकार मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना था उसी प्रकार मैं तुम्हें कहता हूं। . ॥ इति प्रथम अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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