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१३.
प्रथम अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा 事事非事事學學參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參
राग दोस कसाएहिं, इंदिएहिं य पंचेहिं। दुहा वा मोहणिजेण, अट्टा संसारिणो जिया॥१॥
अर्थात् - राग-द्वेष, चार कषाय, पांच इंद्रियों के विषयों एवं दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय से संसारी जीव आर्त (दुःखी-पीड़ित) है।
प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि आर्त एवं दुर्लभबोधि जीव अपने स्वार्थ के लिये पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। अब आगे के सूत्र में सूत्रकार स्पष्ट करते हैं कि पृथ्वीकायिक जीव कैसे व कितने हैं -
. (११) " संति पाणा पुढो सिया, लज्जमाणा पुढो पास।
कठिन शब्दार्थ - संति - हैं, पाणा - प्राणी, सिया - श्रिता-आश्रित हैं, लज्जमाणालज्जमान - लज्जित होने वाले।
भावार्थ - पृथ्वीकायिक जीव पृथक् - पृथक् शरीर में आश्रित रहते हैं अर्थात् वे प्रत्येक शरीरी होते हैं अतः इनके आरम्भ से लज्जित होने वाले, हिंसा करने में लज्जा का अनुभव करने वाले आत्म-साधकों (साधुओं) को तू पृथक् देख। अर्थात् पृथ्वीकायिक आदि का आरंभ करने वाले साधुओं से उन्हें भिन्न समझ। ... विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वीकाय को प्रत्येक शरीरी कहा गया है। जैसे तिल की पपडी में अनेकों तिल होते हैं वैसे ही पृथ्वीकाय में स्थित जीव भिन्न-भिन्न शरीर में रहते हैं। साधारण वनस्पति की तरह इसके एक शरीर में अनंत जीव नहीं रहते। इसके एक शरीर में एक ही जीव रहता है। इसलिये पृथ्वीकाय को प्रत्येक शरीरी कहा गया है। पृथ्वीकाय एक जीव के आश्रित नहीं अपितु असंख्यात जीवों का पिण्ड है। पृथ्वीकाय में असंख्यात जीव हैं। . . ___ जो पृथ्वीकाय का आरम्भ स्वयं नहीं करते हैं, दूसरों से भी नहीं करवाते हैं तथा आरम्भ करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करते हैं वे ही सच्चे अनगार हैं। ऐसे आत्मसाधकों को पृथ्वीकाय आदि का आरंभ करने वाले साधुओं से पृथक् समझने का सूत्रकार का निर्देश है।
(१२) अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभेमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ।
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