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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 8888888888888888888888888888888888 आहार करने के कारण कठोर स्वभाव वाले, लट्ठि - शरीर प्रमाण लाठी, णालियं - नालिकाशरीर से चार अंगुल लम्बी लकड़ी को, विहरिंसु - विहार किया था।
भावार्थ - इस प्रकार के स्वभाव वाले वहां बहुत लोग थे। उस लाढ देश में भगवान् ने पुनः पुनः विचरण किया। उस वज्रभूमि के बहुत से मनुष्य रूक्ष आहार करने वाले होने के कारण कठोर स्वभाव वाले थे। वहां अन्यतीर्थिक श्रमण लाठी और नालिका लेकर विचरते थे।
. (५०४) एवं पि तत्थ विहरता, पुट्टपुव्वा अहेसि सुणएहिं।
संलुंचमाणा सुणएहिं, दुच्चरगाणि तत्थ लाहिं॥ .. कठिन शब्दार्थ - विहरता - विचरते हुए, संलुंचमाणा - नोचे गये, दुच्चरगाणि - विचरण करना दुष्कर।
भावार्थ - इस प्रकार वहां विचरण करने वाले अन्यतीर्थिक श्रमणों को कुत्ते काट खाते या नोंच डालते। उस लाढ देश में विचरण करना बड़ा ही कठिन था।
विवेचन - उस लाढ देश में अन्यतीर्थिक भिक्षु हाथ में लाठी या मालिका लेकर विचरते थे फिर भी उनको कुत्ते काट खाते थे या नोंच डालते थे, ऐसे विकट लाढ देश में भगवान् ने .. छह मास तक विचरण किया जहां विचरण करना बहुत ही दुष्कर था।
(५०५) णिहाय दंडं पाणेहि, तं कायं वोसिजमणगारे। अह गामकंटए भगवं, ते अहियासए अभिसमेच्चा॥
कठिन शब्दार्थ - णिहाय - त्याग करके, वोसिज - ममत्व का त्याग करके, गामकंटएग्रामीणों के कंटक के समान कठोर वाक्यों को, अभिसमेच्चा - जान कर।
भावार्थ - अनगार भगवान् महावीर स्वामी प्राणियों को मन, वचन, काया से दण्ड देने का परित्याग करके और अपने शरीर के प्रति ममत्व का त्याग करके विचर रहे थे। परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करने से निर्जरा होती है, ऐसा जान कर भगवान् उन ग्राम्यंजनों के कांटों के समान तीखे वचनों को समभाव से सहन करते थे।
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