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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) இது ககககககககககககககக
णवमं अज्झयणं तइओदेसो
नवम अध्ययन का तृतीय उद्देशक दूसरे उद्देशक में भगवान् की शय्या के विषय में कहा गया है। उन स्थानों में रहते हुए भगवान् ने जो परीषह उपसर्ग सहन किये थे उनका वर्णन इस तीसरे उद्देशक में किया जाता है -
(४६६) तणफासे, सीयफासे य तेउफासे य, दंसमसगे य। . अहियासए सया समिए, फासाइं विरूवरूवाइं॥
भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी तृण स्पर्श, शीत स्पर्श, तेज (उष्ण) स्पर्श और दंशमशक (डांस और मच्छरों का) स्पर्श तथा अन्य नाना प्रकार के स्पर्शों - परीषहों उपसर्गों को सदा समिति युक्त होकर - समभाव पूर्वक सहन करते थे।
लाढ देश में विचरण
. (५००) अह दुच्चरलाढमचारी, वजभूमिं च सुन्भभूमिं च। पंतं सेजं सेविंसु, आसणगाणि चेव पंताणि॥
कठिन शब्दार्थ - दुच्चर - दुश्चर - दुर्गम्य - जहां विचरना बड़ा कठिन है, लाद - लाढ देश में, अचारी - विचरण किया, पंतं - प्रान्त, सेजं - शय्या का, सेविंसु - सेवन किया था। . भावार्थ - दुर्गम लाढ देश की वज्रभूमि और शुभ्र भूमि में भगवान् ने विचरण किया था वहां उन्होंने बहुत ही प्रांत - तुच्छ शय्या का और कठिन आसनों का सेवन किया था।
विवेचन - "अभी मुझे बहुत से कर्मों की निर्जरा करनी है, इसलिए लाढ देश में जाऊं। वहां अनार्य लोग हैं वहां कर्म निर्जरा के निमित्त अधिक उपलब्ध होंगे" - ऐसा विचार कर भगवान् महावीर स्वामी जहां विचरना बड़ा ही कठिन है ऐसे लाढ देश की वज्रभूमि और
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