________________
३१६
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 888@@@@@@@@@ @@@@@@@@@@ @@@@@@@ @@ @@@@@@@
अहिंसा युक्त क्रिया विधि
(४८३) एस विही अणुक्कतो, माहणेण मइमया। बहुसो अपडिण्णेण, भगवया एवं रीयंति॥ त्ति बेमि॥ - ॥णवमं अज्झयणं पढमोइसो समत्तो॥
कठिन शब्दार्थ - विही - विधि का, अणुक्कंतो - आचरण किया, अपडिण्णेण - निदान रहित, रीयंति - आचरण करते हैं। ___ भावार्थ - ज्ञानवान् (मतिमान्) महामाहन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने निदान रहित इस पूर्वोक्त क्रिया-विधि का आचरण किया और अनेक प्रकार से इसका उपदेश दिया। अतः मोक्षार्थी मुमुक्षु आत्माओं को इसी विधि का आचरण करना चाहिये। ऐसा मैं कहता है।
विवेचन - प्रस्तुत उद्देशक में साधक के लिए जो अहिंसा युक्त क्रिया विधि बताई है वह केवल भगवान् महावीर स्वामी द्वारा उपदिष्ट ही नहीं है अपितु स्वयं के द्वारा आचरित भी है। इसी बात को इस गाथा में स्पष्ट किया है। भगवान् की आत्मा ने जिस साधना पथ पर आगे बढ़ते हुए सिद्धत्व पद को प्राप्त किया उसी साधना पथ को आचरित कर संसार की प्रत्येक आत्मा सिद्ध पद को प्राप्त कर सकती है।
जैन धर्म का पूर्ण विश्वास है कि प्रत्येक आत्मा में सिद्ध बनने की शक्ति है, प्रत्येक आत्मा सिद्धों के जैसी ही आत्मा है और साधना पथ को स्वीकार करके सिद्ध बन सकती है। अतः भगवान् महावीर स्वामी ने जिस प्रकार आचरण किया था, अन्य मोक्षार्थी पुरुषों को भी इसी प्रकार आचरण करना चाहिए, ऐसा श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य श्री जम्बू स्वामी से कहते हैं।
॥ इति नौवें अध्ययन का प्रथम उदेशक समाप्त।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org