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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR@@@@@@@ सब तरह से कर्म बंध का कारण है। अतः उन्होंने आधाकर्म आहार का सेवन नहीं किया था। भगवान् आहार से संबंधित अन्य कोई भी पाप नहीं करते थे किन्तु प्रासुक आहार का सेवन करते थे।
(४७६) णासेवइय परवत्थं, परपाए वि से ण भुंजित्था। परिवजियाण ओमाणं गच्छड संखडिं असरणयाए॥
कठिन शब्दार्थ - ओमाणं - अपमान को, असरणयाए - किसी की शरण लिए बिनाअदीन भाव से, संखडिं - आहार के स्थान - भोजनगृहों में।
भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी बहुमूल्य वस्त्रों को या दूसरे के वस्त्रों को धारण नहीं करते थे तथा वे दूसरों के पात्र में भोजन भी नहीं करते थे। वे अपमान का ख्याल न करके अदीनवृत्ति से आहार के स्थान में जाते थे।
विवेचन - कुछ लोग यह कहते हैं कि - 'श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने पहले पारणे में गृहस्थ के बर्तन में आहार किया था' परन्तु यह बात इस मूल आगम के विरुद्ध है। सब तीर्थकर भगवान् करपात्री (हाथ में लेकर ही आहार करने वाले) होते हैं। दीक्षा लेने के बाद वे गृहस्थ के बर्तन की बात तो दूर किन्तु दूसरे साधु के पात्र में भी आहार नहीं करते हैं। वे अछिद्रपाणि होते हैं अर्थात् उनके हाथ की अंगुलियों के बीच के छिद्र भी नहीं होते अतः हाथ में लिये हुए आहार और पानी में से एक कण या एक बूंद भी नीचे नहीं गिरती है।
(४८०) मायण्णे असणपाणस्स, णाणुगिद्धे रसेसु अपडिण्णे। अच्छि पिणो पमजिजा णो वि य कंडुयए मुणी गायं।
कठिन शब्दार्थ - मायण्णे - मात्रज्ञ - मात्रा (मरिमाण) को जानने वाले, अपडिण्णे - अप्रतिज्ञ, अच्छिं - आंख का, कंडुपए - खाज की।
भावार्थ - भगवान् आहार पानी की मात्रा को जानते थे वे रसों में आसक्त नहीं थे, वे
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