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________________ आठवां अध्ययन - आठवां उद्देशक २६१ पादपोपगमन रूप मरण से मृत्यु प्राप्त करना तीर्थंकरोक्त होने के कारण सत्य (हितकारी) है। सत्यवादी पुरुष ही इसे स्वीकार कर सकते हैं। तीर्थंकर भगवान् के वचनों पर अटल श्रद्धा होने के कारण वे इस कठोर मरण को स्वीकार करते हैं। वे धीर पुरुष परीषह उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करके इस पादपोपगमन रूप मरण से शरीर का त्याग कर सुगति को प्राप्त होते हैं। ॥ इति आठवें अध्ययन का सातवां उद्देशक समाप्त॥ · अहमं अज्झयणं अहमोइसो आठवें अध्ययन का आठवां उद्देशक पूर्व उद्देशकों में जिन तीन समाधिमरण रूप अनशनों (भक्त परिज्ञा, इंगित और पादपोपगमन) का निरूपण किया गया है उन्हीं के विशेष आंतरिक विधि-विधानों का इस आठवें उद्देशक में क्रमशः वर्णन किया जाता है - (४३८) अणुपुव्वेण - विमोहाई, जाइं धीरा समासज। वसुमंतो मइमंतो, सव्वं णच्चा अणेलिसं॥ _कठिन शब्दार्थ - अणुपुव्वेण - अनुक्रम से, विमोहाई - विमोह मोह रहित भक्त परिज्ञा, इंगितमरण और पादपोपगमन रूप त्रिविध मरणों में से, समासज - प्राप्त कर, वसुमंतोवसुमान्-संयम का धनी, अणेलिसं - अनीदृश - जिसके समान दूसरा कोई नहीं - अद्वितीय। भावार्थ - अनुक्रम से जिनका विधान किया गया है उन सब को भली भांति जान कर . संयमी, बुद्धिमान् धीर मुनि भक्त परिज्ञा, इंगित मरण और पादपोपगमन रूप त्रिविध मरणों में से किसी एक अनीदृश - अद्वितीय मरण को प्राप्त कर समाधि पूर्वक शरीर का त्याग करे। विवेचन - आगमकारों ने जिस क्रम से जिस क्रिया का विधान किया है उसी प्रकार आचरण करता हुआ धीर, संयमी, मतिमान् मुनि अंतिम समय में त्रिविध मरणों में से किसी एक मरण को अपनाए और समाधि मरण से इस नश्वर देह का त्याग करे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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