SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ , २६० आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 聯華佛密密佛聯佛聯佛聯部密密密串聯串聯串聯帶來非密聯佛聯佛聯聯邦參傘傘傘傘都來帶 रहित स्थान में यावत् घास का बिछौना बिछाए। घास का बिछौना बिछा कर इसी समय शरीर, योग (शरीर की प्रवृत्ति) और गमनागमन (ईया) का पच्चक्खाण (त्याग) करे। पादपोपगमन मरण का स्वरूप (४३७) तं सच्चं सच्चावाई ओए तिण्णे छिण्णकहकहे आईयढे अणाईए चेच्चाण भिउरं कायं संविहूणिय विरूवरूवे परिसहोवसग्गे अस्सिं विस्संभणयाए भेरवमणुचिण्णे तत्थावि तस्स कालपरियाए से तत्थ विअंतिकारए इच्चेयं विमोहाययणं हियं, सुहं, खमं, णिस्सेसं आणुगामियं त्ति बेमि। ॥ अट्ठमं अज्झयणं सत्तमोहेसो समत्तो॥ भावार्थ - यह मरण सत्य (हितकारी) है। इसे स्वीकार करने वाला पुरुष सत्यवादी होता है। वह राग द्वेष रहित संसार सागर को तिरने वाला, रागद्वेष आदि की कथा को छेदन करने वाला, जीवादि पदार्थों का ज्ञाता और संसार सागर को पार करने वाला है। वह साधक प्रतिक्षण विनाशशील इस शरीर का त्याग कर, नाना प्रकार के परीषह उपसर्गों पर विजय प्राप्त करके, उन्हें समभाव से सहन करके इस आर्हत् आगम में विश्वास होने के कारण इस घोर-कठिन अनशन का आचरण - अनुपालना करे। रोगादि आतंक के कारण पादपोपगमन अनशन स्वीकार करना भी उस साधक के लिए काल पर्याय - काल मृत्यु है। समाधि मरण से मरने वाला भिक्षु कर्मों का अंत करता है। यह मोह रहित पुरुषों का आश्रय, हितकारी, सुखकारी, कालोचित, निःश्रेयस्कर (मोक्षप्रदायी) और परलोक में भी साथ चलने वाला है। - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पादपोपगमन रूप समाधि मरण का स्वरूप, उसकी विधि और महिमा का वर्णन किया गया है। जिस प्रकार पादप-वृक्ष सम या विषम अवस्था में निश्चेष्ट पड़ा रहता है उसी प्रकार जहां और जिस रूप में साधक ने अपना शरीर रख दिया है वहाँ और उसी रूप में आयु पर्यंत निश्चल पड़ा रहे, अपने अंगों को भी हिलाए डुलाए नहीं, सेवा सुश्रुषा से रहित ऐसे मरण को ‘पादपोपगमन मरण' कहते हैं। पादपोपगमन अनशन का साधक न तो दूसरे की सेवा करता है और न दूसरे की सेवा लेता है। पादपोपगमन में निम्न तीन बातों का त्याग होता है - १. शरीर २. शरीरगत योग - आकुंचन प्रसारण आदि काय व्यापार और ३. ईर्या - सम्पूर्ण हलन चलन। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy