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________________ आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध) विवेचन न छिपाए। वह अभिग्रहधारी मुनि अवमचेलक - परिणाम और मूल्य की दृष्टि अतिसाधारण वस्त्र रखे । वस्त्रधारी मुनि की यही सामग्री है। प्रस्तुत दोनों सूत्रों में वस्त्र पात्रादि रूप बाह्य उपधि और रागद्वेष, मोह एवं आसक्ति आदि आभ्यंतर उपधि के त्याग का निर्देश किया गया है। जिस साधु ने तीन वस्त्र और एक जाति का पात्र उपरांत उपधि रखने का त्याग किया है वह मुनि शीतादि का परीषह . उपस्थित होने पर भी चौथे वस्त्र को स्वीकार करने की इच्छा नहीं करे। यहाँ पर एक पात्र का आशय संख्या की दृष्टि से नहीं समझ कर तीन जाति के पात्रों में से किसी भी एक जाति के पात्र को रखना समझना चाहिये । संख्या की दृष्टि से यदि एक पात्र रखा जावे तो उसमें लेप शुद्धि नहीं होने से रखना उचित नहीं लगता है। प्रस्तुत सूत्र का आशय यही है कि साधु अपनी उपकरण आवश्यकता को कम करता जाय और उपधि संयम को बढ़ाता रहे, उपधि की अल्पता लाघव-धर्म की साधना है। यदि साधु आवश्यक उपधि से अतिरिक्त उपधि का संग्रह करेगा तो उसके मन में ममत्व भाव जागेगा, उसका अधिकांश समय उसे संभालने, धोने, सीने आदि में ही लग जायगा तो स्वाध्याय ध्यान आदि कब करेगा ? २७२ - Jain Education International प्रस्तुत सूत्र से यह भी स्पष्ट है कि साधु जिस रूप में एषणीय- कल्पनीय वस्त्र मिलें उन्हें वह उसी रूप में धारण करे किंतु उनको धोवे नहीं और रंगे नहीं। इसका आशय यह है कि जिस प्रकार गृहस्थ कोरपाण कपडा (लट्ठा आदि) को वैसा ही नहीं पहनता है किंतु उस कपड़े की पाण (मांड आदि) को धोकर निकाल देता है और फिर पहनता है। मुनि ऐसा न करे किंतु जैसा कपड़ा लाया है। वैसा ही पहन ले। पहनते पहनते जब वह अधिक मैला हो जाय और पसीने के कारण लीलण फूलन आदि आ जाने की शंका हो, अधिक करडा पड़ गया हो तो मुनि कल्पनीय धोवन आदि के द्वारा उसको धो सकता है। धोने के लिये गृहस्थी का बरतन (कुण्डा, परात, मिट्टी का ढीबरा आदि) को काम में नहीं लेना चाहिये क्योंकि इससे पूर्वकर्म और पश्चात् कर्म आदि दोष लगने की संभावना है । दशवैकालिक सूत्र छठे अध्ययन की ५१, ५२, ५३ गाथा में गृहस्थी का बरतन काम में लेने का निषेध किया गया है। इसलिए वस्त्रादि । धोने के लिए मुनि को अपना ही पात्र काम में लेना चाहिये। साबुन, सोडा आदि से वस्त्र धोने का निषेध तो दशवैकालिक आदि सूत्रों में किया गया है। अतः साधु साध्वी को साबुन, सोडा आदि काम में नहीं लेना चाहिये क्योंकि यह विभूषा का कारण बनता है। इसका विशेष वर्णन 88 स्वल्प और For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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