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________________ २६८ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) BRE@@Rege8888@RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRORE २. साधुओं की सेवा करने के लिए . ३. ईर्यासमिति के पालन के लिए ४. संयम पालन के लिए ५. प्राणों की रक्षा के लिए ६. स्वाध्याय, धर्मध्यान आदि करने के लिए। इन छह कारणों के अलावा केवल शरीर को पुष्ट करने, बल वीर्यादि बढ़ाने के लिए आहार करना अकारण दोष हैं। निम्न छह कारणों में से किसी कारण के उपस्थित होने पर साधक को आहार त्याग कर देना चाहिये आयंके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुतीसु। पाणिदया तवहे सरीरं वोच्छेयणट्ठाए॥ ३५॥ १. रोगादि आतंक होने पर। २. उपसर्ग आने पर, परीषहादि की तितिक्षा के लिए। ३. ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए। ४. प्राणिदया के लिए। ५. तप के लिए। ६. शरीर त्याग के लिए। आशय यह है कि जीव अनादि काल से कर्मों से बंधा हुआ है। उन कर्मों से छुटकारा पाने के लिए शरीर को आहार देना आवश्यक है। उपर्युक्त कारणों में यह स्पष्ट कर दिया गया है। (४१७) ओए दयं दयइ । भावार्थ - क्षुधा पिपासादि परीषहों से प्रताडित होने पर भी रागद्वेष रहित साधु प्राणिदया का पालन करता है। (४१८) जे संणिहाणसत्थस्स खेयण्णे से भिक्खू कालण्णे बलण्णे मायण्णे खणण्णे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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