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________________ महा परिण्णा णामं सत्तमं अज्झयणं वोच्छिण्णं महापरिजा नामक सातवां अध्ययन विच्छिन्न सातवें अध्ययन का नाम 'महापरिज्ञा' है। महापरिज्ञा अर्थात् महान् - विशिष्ट ज्ञान के द्वारा मोह जनित दोषों को जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा उनका त्याग करना। महापरिज्ञा नामक सातवें अध्ययन के सात उद्देशक हैं किन्तु यह अध्ययन व्युच्छिन्न हो गया है, आज हमारे समक्ष अनुपलब्ध है। अतः अब आठवां अध्ययन कहा जाता है। विमोक्ख णामं अहमं अज्झयणं - विमोक्ष नागक आठवां अध्ययन आठवें अध्ययन का नाम 'विमोक्ष' है। छठे अध्ययन में कहा गया है कि मोक्षार्थी पुरुष को अपने शरीर, उपकरण आदि से ममत्व हटा कर निःसंग होकर विचरना चाहिये। ऐसा परम धीर (वीर) पुरुष ही कर सकता है उसे ही सम्यग् निर्माण की प्राप्ति होती है। अतः इस आठवें अध्ययन में सम्यग् निर्याण - भाव विमोक्ष का वर्णन किया जाता है। आठवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक का प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं - पठमो उद्देसो - प्रथम उद्देशक समनोज्ञ और असमनोज्ञ के साथ व्यवहार (३६४) से बेमि समणुण्णस्स वा असमणुण्णस्स वा असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायपुंछणं वा णो पाएज्जा, णो णिमंतिजा णो कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे त्ति बेमि। कठिन शब्दार्थ - समणुण्णस्स - समनोज्ञ - जो श्रद्धा और लिंग से तो अपने समान है किन्तु आहार आदि से समान नहीं है - उसको, असमणुण्णस्स - असमनोज्ञ - दर्शन, लिंग और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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