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छठा अध्ययन - पांचवां उद्देशक - धर्मोपदेश क्यों, किसको और कैसे? २५१ 888888888888888888888888888888888888888888888888888888 ___ भावार्थ - शरीर के विनाश को - मृत्यु के समय की पीड़ा को संग्रामशीर्ष कहा गया है। जो मृत्यु को पण्डित मरण से महोत्सव बना देता है वही संसार से पारगामी होता है। परीषह उपसर्गों द्वारा पीड़ित किये जाने पर भी मुनि भयभीत (उद्विग्न) नहीं होता और फलक की तरह स्थिर रहता है। मृत्युकाल के समीप आने पर जब तक शरीर का भेदन न हो तब तक काल (आयु क्षय) की प्रतीक्षा करे, ऐसा मैं कहता हूँ। - विवेचन -मरण काल वस्तुतः साधक के लिए संग्राम का अग्रिम मोर्चा (संग्राम शीर्ष) है। मृत्यु का भय संसार में सबसे बड़ा भय है। इस पर विजय प्राप्त करने वाला, सभी भयों को जीत लेता है। अतः मृत्यु निकट आने पर मारणांतिक वेदना होने पर शांत अविचल रहना, मृत्यु के मोर्चे को जीतना है। जो इस मोर्चे पर हार जाता है वह प्रायः सारे संयमी जीवन की उपलब्धियों को खो देता है। शरीर के प्रति मोह ममत्व व आसक्ति से बचने के लिए ही ज्ञानीजनों ने संलेखना की विधि बताई है जिसके अंतर्गत कषाय और शरीर को कृश करना होता है। संलेखना करने वाले साधक को फलगावयट्ठी - छीले हुए फलक की उपमा दी है। जैसे काष्ठ को दोनों ओर से छिल कर उसका पाटिया - फलक बनाया जाता है वैसे ही साधक शरीर और कषाय दोनों से कृश - दुबला हो जाता है। संलेखना के समय में साधक को परीषहों
और उपसर्गों से नहीं घबराना चाहिये अपितु काष्ठ फलकवत् स्थिर रहना चाहिये तथा जब तक शरीर छूटे नहीं तब तक काल (मृत्यु) की प्रतीक्षा करनी चाहिये। इस प्रकार जो साधक मृत्यु के समय मोह. मूढ़ नहीं होता, परीषह उपसर्गों से विचलित नहीं होता, वह सर्व कर्मों को क्षय कर संसार से पारगामी हो जाता है अर्थात् सर्व दुःखों का अंत कर मोक्ष के शाश्वत सुखों को प्राप्त कर लेता है। ___ ॥ इति छठे अध्ययन का पांचवां उद्देशक समाप्त॥
॥ धूताक्ख नामक छठा अध्ययन समाप्त।
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