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________________ २४२. __आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE शंका ग्रस्त करके अपने दूषण का चेप लगाते हैं उन्हें भी सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट करके सन्मार्ग से विचलित कर देते हैं। अतः उभय-भ्रष्ट बहुत खतरनाक होते हैं उनसे अपने आप को दूर रखना चाहिए। (३७५)। पुट्ठा वेगे णियटुंति जीवियस्सेव कारणा, णिक्खंतं पि तेसिं दुण्णिक्खंतं भवइ। कठिन शब्दार्थ - णियति - निवृत्त हो जाते हैं, णिक्खंतं - निष्क्रमण, दुण्णिक्खंतंदुर्निष्क्रमण। भावार्थ - कुछ साधक परीषहों के स्पर्श को पाकर असंयम जीवन की रक्षा के लिएसुख पूर्वक जीवन जीने के लिए संयम से निवृत्त हो जाते हैं - संयम छोड़ बैठते हैं उनका गृहवास से निष्क्रमण भी दुनिष्क्रमण हो जाता है। (३७६) _ बालवयणिजा हु ते णरा पुणो पुणो जाई पकप्पेंति अहे संभवंता विद्दायमाणा अहमंसि ति विउक्कसे उदासीणे फरुसं वयंति, पलियं पकत्थे अदुवा पकत्थे अतहेहिं तं मेहावी जाणिजा धम्म। ___ कठिन शब्दार्थ - बालवयणिजा - बाल-अज्ञजनों द्वारा निंदनीय, अहे - नीचे निम्न स्थान में, संभवंता - रहते हुए, विद्दायमाणा - विद्वान् मानते हुए, विउक्कसे - अभिमान करते हैं-डींग मारते हैं, उदासीणे - उदासीन - मध्यस्थ, पकत्थे - निंदा करते हैं, अतहेहिं - असत्य वचनों से। भावार्थ - वे अज्ञानी जीवों के द्वारा भी निंदनीय हो जाते हैं तथा वे पुनः-पुनः जन्म धारण करते हैं। रत्नत्रयी में वे निम्न स्तर के होते हुए भी अपने आप को विद्वान् मान कर “मैं ही बहुश्रुत - सर्वाधिक विद्वान् हूँ" इस प्रकार अहंकार करते हैं। जो उनसे उदासीन (मध्यस्थ) रहते हैं उन्हें वे कठोर वचन बोलते हैं। वे साधु के पूर्वाचरण (पूर्व आचरित - गृहवास के समय किये हुए कर्म) को बताकर निंदा करते हैं अथवा असत्य आरोप लगा कर उन्हें बदनाम करते हैं किन्तु बुद्धिमान साधु श्रुत चारित्र रूप मुनि धर्म को भलीभांति जाने। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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