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छठा अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - एकल विहार प्रतिमाधारी
और कभी कभी कभी भरी और भीती
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भावार्थ - विषयों से उपरत, इस कर्म क्षय के उपाय संयम में रत रहने वाला कर्मों का क्षय कर देता है। वह कर्मों के स्वरूप को जान कर संयम पर्याय से उनका क्षय करता है।
एकल विहार प्रतिमाधारी (३५८)
इहमेगेसिं एगचरिया होइ, तत्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुद्धेसणाए सव्वेसणाए से मेहावी परिव्वए, सुब्भिं अदुवा दुब्भिं अदुवा तत्थ भेरवा पाणापाणे किलेसंति, ते फासे पुट्ठों धीरो अहियासेज्जासि त्ति बेमि ॥ ३५८ ॥
॥ बीओसो समत्तो ॥
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भयंकर
कठिन शब्दार्थ - एगचरिया - एकाकी चर्या (एकल विहार प्रतिमा की साधना ), सुद्धेसणाशुद्ध एषणा से - एषणा के दस दोषों से रहित, सव्वेसणाए - सर्वेषणा से उद्गम, उत्पादना आदि सभी दोषों से रहित, सुब्भिं सुगंध वाला, दुब्भिं - दुर्गन्ध युक्त, भेरवा शब्दों को सुनकर या भयंकर रूपों को देख कर, अहियासेज्जासि - सहन करे । भावार्थ इस प्रवचन में स्थित कोई साधु एकाकी चर्या वाले होते हैं, अकेले विचरते हैं। वे अकेले विचरने वाले जिनकल्पी दूसरे सामान्य साधुओं से विशिष्ट होते हैं। वे मेधावी साधु विभिन्न कुलों से एषणा के दस दोषों से रहित और उद्गम, उत्पादना आदि सब दोषों से रहित प्राप्त शुद्ध आहारादि द्वारा संयम का पालन करे। वे सुगंध युक्त अथवा दुर्गन्ध युक्त आहार को समभावों से ग्रहण करे। एकाकी विहार साधना में भयंकर स्थानों में अकेले रहते हुए भयंकर शब्दों को सुनकर या भयंकर रूपों को देखकर भी भयभीत नहीं हो। अथवा जो प्राणी अन्य प्राणियों को मारते हैं, उन हिंसक प्राणियों द्वारा सताये जाने पर उन दुःखों का स्पर्श होने पर धीर मुनि उन्हें समभाव पूर्वक सहन करे। ऐसा मैं कहता हूँ ।
' विवेचन प्रस्तुत सूत्र में कर्म क्षय करने के लिए एकल विहार प्रतिमा स्वीकार करने वाले स्थविर कल्पी अथवा जिनकल्पी साधुओं को आने वाले परीषह उपसर्गों का वर्णन करते हुए उन्हें समभावों से सहन करने की प्रेरणा की गयी है।
॥ छठे अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
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