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छठा अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - संयमी के लक्षण
२३१ 8888888RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE तो वह साधु इनको अपने पूर्वकृत कर्मों का फल समझ कर समभावों से सहन करे। जो मन में आह्लाद उत्पन्न करने वाले अनुकूल परीषह हैं उन्हें और जो मन को अप्रिय लगने वाले प्रतिकूल परीषह हैं उन्हें जानकर लज्जाकारी और अलज्जाकारी परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करता हुआ संयम में विचरण करे।
सम्यग्दृष्टि साधु परीषहों को सहन करने में सभी प्रकार की शंकाओं को छोड़कर दुःख - स्पर्शों को समभाव से सहे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में संयमनिष्ठ, मोक्षार्थी महामुनि के जो लक्षण बताये हैं, वे इस प्रकार हैं१. मुनि धर्मोपकरणों का निर्ममत्व भाव से यतना पूर्वक उपयोग करने वाला हो। २. परीषह-सहिष्णुता का अभ्यासी हो। ३. समस्त प्रमादों का त्यागी। ४. स्वजन लोक में/कामभोगों में अलिप्त-अनासक्त। ५. तप संयम तथा धर्माचरण में दृढ़। ६. समस्त गृद्धि - भोगासक्ति का त्यागी। ७. संयम या कर्म क्षय में प्रवृत्त।
८. "मेरा कोई नहीं है, मैं अकेला हूँ" - इस प्रकार एकत्व भावना से सांसारिक संगों का सम्पूर्ण/सर्वथा त्यागी।।
६. द्रव्य एवं भाव से मुण्डित। १०. अचेलक - अल्प वस्त्र को धारण करने वाला। अथवा जिनकल्प को स्वीकार करने वाला। ११. अनियत - अप्रतिबद्ध विहारी। १२. अन्त प्रान्त भोजी और ऊनोदरी तप करने वाला। १३. अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों को समभावों से सहन करने वाला।
वध, आक्रोश आदि प्रतिकूल परीषहों के उपस्थित होने पर स्थानांग सूत्र स्थान ५ उद्देशक ३ के अनुसार साधक चिंतन करे कि -
१. यह पुरुष कि यक्ष (भूत-प्रेत) आदि से ग्रस्त है। . २. यह व्यक्ति पागल है। ३. इसका चित्त दर्प से युक्त है।
४. मेरे ही किसी जन्म में किये हुए कर्म उदय में आए हैं तभी तो यह पुरुष मुझ पर आक्रोश करता है, बांधता है, हैरान करता है, पीटता है, संताप देता है।
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